Book Title: Mithila aur Jain Mat
Author(s): Upendra Thakur
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 3
________________ ५] मिथिला और जैनमत ३१९ विरुद्ध आवाज उठाने के कारण महावीर की दृष्टि में चाहे ब्राह्मण वल मिला था। किन्तु प्रारम्भ में जाति व्यवस्था के फलस्वरूप उत्पन्न कुरीतियों के जैनधर्म की लोकप्रियता समाज के निर्धन तथा निम्न वर्गों में उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। हों अथवा शूद्र, उच्च वर्ग का हो अथवा निम्न वर्ग का -- सभी समान थे। उनके अनुसार कोई भी व्यक्ति जन्म से नहीं, अपितु सुकार्यों एवं सद्गुणों से ब्राह्मण होता है । चाण्डाल भी अपनी प्रतिभा और सद्कार्यों द्वारा समाज में उच्चतम स्थान प्राप्त कर सकता है । ब्राह्मणधर्म को भाँति हो जैनधर्म आत्मा के स्थानान्तरण और पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्ति में विश्वास करता है किन्तु, इसके लिये ब्राह्मणधर्म में जिस संयम और तपस्या की अवस्था है, उसे वह नहीं मानता । सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर दोनों में अन्तर बहुत कम है और वह भी बहुत कुछ जाति-व्यवस्था के प्रति दोनों धर्मों के दृष्टिकोण से स्पष्ट हो जाता है। महाबीर ने वास्तव में न तो जाति व्यवस्था का विरोध किया सम्बन्धित सभी बातों को स्वीकार किया। उनका कहना था कि पूर्वजन्म के अच्छे या बुरे कार्यों के फलस्वरूप ही किसी मनुष्य का जन्म ऊँची अथवा नीची जातियों में होता है, किन्तु वह अपने पवित्र आचरण और प्रेम द्वारा आध्यात्मिकता को प्राप्त कर निर्वाण के अन्तिम सोपान तक पहुँच सकता है । महाबौर के अनुसार जाति-व्यवस्था तो परिस्थितिगत है और किसी भी आध्यात्मिक व्यक्ति के लिये इसके बन्धन को सदा के लिये तोड़ देना आसान है " । ईश्वरीय अवदान किसी सम्प्रदाय विशेष, अथवा संघ विशेष का एकाधिकार नहीं है और इस दृष्टि से नर व नारी में कोई अन्तर नहीं है" । यही कारण है कि एक ओर जहाँ बौद्धों और ब्राह्मण दार्शनिकों में लगभग एक सदी तक दार्शनिक वाग्युद्ध चलता रहा, वहीं दूसरी ओर जैनियों के प्रति ब्राह्मण अपेक्षाकृत अधिक उदार और संवेदनशील रहे । और न ही उससे : ३ : ने यह सही हैं कि जैन और ब्राह्मण दार्शनिकों ने एक दूसरे के मतों का खण्डन किया है, किन्तु यह आलोचना मात्र प्रसंगवश जान पड़ती है, न कि सुनियोजित रूप में एक दूसरे के सिद्धान्तों का खण्डन करने के लिए। इसीलिए उनकी भाषा में कहीं कटुता अथवा उग्रता के भाव नहीं दिखायी पड़ते । महाबोर का अध्ययन करने के लिए उत्साहित किया था, ताकि वे दार्शनिक वाद-विवाद में सकें । बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार निर्ग्रन्थ मुनियों और उनके अनुयायियों में कई ऐसे कारण काफी प्रख्यात थे'६ । मध्यकालीन तर्क शास्त्र वस्तुतः जैन और बौद्ध नैयायिकों के हाथ में था और लगभग एक हजार वर्षों तक ( ई० पू० ६०० से ४०० ई० तक) धर्म तथा आत्मतत्त्वज्ञान से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्तों के निरूपण तथा व्याख्या में ये दार्शनिक लगे रहे, यद्यपि इनके ग्रन्थों में तर्क-शास्त्र का उल्लेख यदा-कदा ही मिलता है । लगभग ४०० ई० और उसके वाद से इन्होंने तर्क शास्त्र के विभिन्न पक्षों का गम्भीर अध्ययन प्रारम्भ किया और यही कारण है कि तर्कशास्त्र से सम्बन्धित जितने भी जैन और बौद्ध ग्रन्थ उपलब्ध है, वे चौथी सदी ई० के बाद के हैं" । आठब शताब्दी में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अधिकांश नैयायिकों का कार्यक्षेत्र उज्जयिनी' ( मालवा ) तथा बल्लभी (गुजरात) में था जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय के नैयायिकों के कार्य-कलाप पाटलिपुत्र और द्रविड़ (कर्नाटक सहित) क्षेत्रों में सीमित थे । सिद्धसेन दिबाकर प्रणीत 'न्यायावतार' (लगभग ५३३ ई०) को जैन-न्याय का प्रथम वैज्ञानिक तथ्य सम्बद्ध ग्रन्थ माना जा सकता है, जबकि मध्यकालीन तर्कशास्त्र (न्यायशास्त्र) के वास्तविक संस्थापक बौद्ध नैयायिक ही थे" । इसी समय पाटलिपुत्र में दिगम्बर जैन नैयायिक विद्यानन्द (८०० ई०) हुए थे जिन्होंने 'आप्तमीमांसा' पर 'आस मीमांसालंकृति' ('अष्ठ सहस्रों' ) नाम की एक विशद् टीका लिखी थी। इसमें सांख्य, योग, वैशेषिक, अद्वैत, मोमांसक तथा सोगत, तथागत अथवा बौद्ध दर्शन की कटु आलोचना की गयी है । विद्यानन्द ने इस प्रसंग में दिग्नाग, उद्योतकर, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, शबरस्वामी, प्रभाकर तथा कुमारिल की भी चर्चा की है । उनके उत्तरवर्ती जैन नैयायिकों ने अपने ग्रन्थों में हिन्दू तथा बौद्ध दार्शनिकों के सिद्धान्तों का खण्डन किया है । Jain Education International अपने अनुयायियों को पूर्व-मीमांसा सही-सही ढंग से तर्क उपस्थित कर दार्शनिक थे जो अपनी प्रतिभा के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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