Book Title: Mithila aur Jain Mat Author(s): Upendra Thakur Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 1
________________ मिथिला और जैनमत डा. उपेन्द्र ठाकुर मगध विश्वविद्यालय, बोधगया बौद्धधर्म के इतिहास में मिथिला (उत्तर विहार) की जो महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, वही जैनधर्म के इतिहास में भी रही है । इस देश में मिथिला जैसे कम क्षेत्र हैं जिन्हें बौद्धों और जैनियों-दोनों का एक-सा सम्मान प्राप्त हुआ हो । जैनियों के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर वैशाली के ही एक सम्भ्रान्त परिवार में पैदा हुए थे और उन्होंने जीवन के प्रारम्भिक वर्ष वहीं बिताये थे। वैशाली प्राचीन काल में मिथिला का ही एक अभिन्न अंग थी, किन्तु खेद की बात यह है कि ब्राह्मण ग्रन्थों और परम्पराओं में वैशाली की उपेक्षा की गयी है और हिन्दू धर्म के इतिहास में कहीं भी ऐसी कोई महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख नहीं है जो इस क्षेत्र से सम्बन्धित हो। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग जब सातवीं शताब्दी में यहाँ आया था, तो उसने इस स्थान में अनेक ध्वंसावशिष्ट हिन्दू मन्दिर, बौद्ध मठ और जैन प्रतिष्ठान देखे थे जहाँ काफी संख्या में निग्रंन्य संन्यासी निवास करते थे। आश्चर्प तो यह है कि इसके बावजूद भी आधुनिक काल में पावापुरी अथवा चम्पा (भागलपुर) को भांति वैशाली न तो जैनियों का तीर्थ-स्थल ही बन सकी और न ही किसी ने अब तक यहाँ जैन पुरातात्विक अवशेषों को खोज करने को ही चेष्टा की है । पुरातत्त्वविदों ने तो इस दिशा में घोर उदासीनता दिखायी है । उन्होंने आज तक ह्वेनसांग-जैसे बौद्ध यात्रियों के द्वारा प्रस्तुत विवरणों तथा बौद्ध ग्रन्थों में वर्णित बौद्ध तीर्थ-स्थलों एवं पुरातात्विक अवशेषों की खोज में हो अपना समय लगाया है और जन पक्ष को घोर उपेक्षा की है। अब तक बसाढ़ (वैशाली) को जैनधर्म की जन्म-स्थली सिद्ध करने में ही वे लगे रहे जबकि इसके समर्थन में हमें पर्याप्त साहित्यिक साक्ष्य मिलते हैं जो अपने आप में पूर्ण माने जा सकते हैं। प्रस्तुत निबन्ध में हम उन पुरातात्विक एवं साहित्यिक साक्ष्यों पर विचार करेंगे जिनसे मिथिला (उत्तर बिहार) में जैनधर्म के उत्थान और विकास पर प्रकाश पड़ता है । . भारत के इतिहास में वैशाली का स्थान एक शक्तिशाली एवं सुनियोजित गणतंत्र और धार्मिक आन्दोलनों के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में काफी ऊँचा है । लिच्छवि गणतंत्र की पवित्र भूमि तथा विदेह गणराज्य की राजधानी-वैशाली-भगवान् महावीर की पवित्र जन्मभूमि के रूप में छठी सदी ई० पूर्व में हमारे समक्ष आती है । उनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातक वंश के प्रधान थे और उनकी पत्नी का नाम त्रिशला था जो वैशाली के राजा चेतक की बहन थी। उसे 'वैदेही' अथवा 'विदेहदत्ता' भी कहते हैं क्योंकि वह विदेह (मिथिला) के राजवंश की थो। इसीलिए महावीर 'विदेह', 'वैदेहदत्ता', विदेहजात्ये' तथा 'विदेहसुकुमार के नाम से भी विख्यात है। वे वैशालिक तो थे ही। फलतः महावीर जहाँ एक ओर वैशालो के निवासी (पित-पक्ष से) थे, वहीं दूसरी ओर विदेह अथवा मिथिला के नागरिक (मातृ-पक्ष से) भी थे। यही कारण है कि महावीर पर मिथिला का अधिकार कहीं अधिक था, क्योंकि उनके व्यक्तित्व एवं चरित्र-निर्माण में इस को सर्वाधिक देन थी, जिसके फलस्वरूप कुछ ही वर्षों में जैनमत तथा आध्यात्मिक अनुशासन एवं संन्यास के प्रमुख केन्द्र के रूप में वैशालो को ख्याति समस्त उत्तर भारत में फैली। भगवान् महावीर के अतिरिक्त, बारहवें तीर्थकर वासुपूज्य का भी चम्पापुर (भागलपुर, जो उस समय विदेह का ही अंग था) में निर्वाण प्राप्त हुआ था तथा इक्कीसवें तीर्थकर नमिनाथ का जन्म भी मिथिला में ही हुआ था। स्वय महावीर ने वैशाली में बारह तथा मिथिला में छह वर्षा-वास बिताये थे। . ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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