Book Title: Mevad ke Shasak evam Jain Dharm Author(s): Jaswantlal Mehta Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 3
________________ मेवाड के शासक एवं जैनधर्म २९ ..............................................................0.0.0.00.0. ऐतिहासिक घटनाएँ, पुरातन महत्त्व और कलात्मक स्थापत्य यह प्रमाणित करते हैं कि जैन श्रमण संस्कृति का इस वीर-भूमि पर विशाल एवं गौरवशाली प्रभाव रहा है। मेवाड़ के शासकों का जैन धर्म के प्रति शताब्दियों से संरक्षण एवं श्रद्धा भी इसका एक मुख्य कारण है। मेवाड़ के महाराणाओं ने जैन धर्म को सम्बल दिया, इस सम्बन्ध में कतिपय प्रमाणों का संक्षिप्त उल्लेख द्रष्टव्य है यह बड़े खेद का विषय है कि कई महत्वपूर्ण प्रमाणों को हमने ही लुप्त अथवा नष्ट कर दिये हैं । सूक्ष्मदृष्टि से इस बिन्दु पर विचार करने पर यह एक अनहोनी बात प्रतीत होगी क्योंकि हम ही ऐसे प्रमाणों को लुप्त अथवा नष्ट क्यों करें? लेकिन जितना गहन अध्ययन किया जावे, इसकी पुष्टि और ज्यादा मजबूती के साथ होती है । सर्वप्रथम मन्दिरों के जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठा के प्रश्न को ही लिया जावे। जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धार के समय कई स्थानों पर मन्दिर के पुरातत्त्व को मिटाने का प्रयास किया जाता है । पुरानी प्रशस्ति हटा दी जाती है ताकि यह मालूम नहीं हो सके कि पूर्व में कब और किस व्यक्ति द्वारा मन्दिर निर्माण एवं किस आचार्य की निश्रा में प्रतिष्ठा अथवा जीर्णोद्धार का कार्य सम्पन्न हुआ है। इसके दो कारण हैं, प्रथम तो नये जीर्णोद्धार कराने व करने वाले की यह इच्छा रहे कि उसी की नामवरी हो । द्वितीय पूर्व के उन आचार्यों का नाम जाहिर नहीं हो पाये जो अन्य गच्छ के थे। नये जीर्णोद्धार किये मन्दिरों में जीर्णोद्धार कराने वाले मुनिगण की नामावली का कई पट्टावली तक वर्णन मिल जावेगा और बड़े-बड़े शिलालेखों पर इसका सुन्दर लिपि में अंकन मिलेगा लेकिन मन्दिर निर्माण एवं पूर्व के जीर्णोद्धार करने व कराने वाले महानुभावों का कोई वर्णन नहीं मिलेगा । फलतः ऐसे स्थानों का इतिहास जानना कठिन ही नहीं, असम्भव हो जाता है अतः दन्तकथाओं का आश्रय लिया जाता है जो इतिहासकार कभी पसन्द नहीं करता । क्या ही अच्छा हो, नवीन जीर्णोद्धार के लेख के साथ पूर्व के जीर्णोद्धार व मन्दिर निर्माण का भी संक्षिप्त विवरण दिया जावे। द्वितीय, हस्तलिखित पुस्तकों के संकलन एवं प्रकाशन की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है। बहुत सी अमूल्य सामग्री पाटन, खम्भात, अहमदाबाद आदि स्थानों पर चली गई है, कुछ ताले में बन्द है । विगत कई वर्षों से मेवाड़ में साधु, मुनि-राज द्वारा विचरण प्रायः बन्द सा हो जाने से एवं यति समुदाय की ओर ध्यान नहीं देने से यह सामग्री भी लुप्त हो रही है एवं पता लगाना भी कठिन हो रहा है। इस सम्बन्ध में यह बताना उचित समझता हूँ कि अगर जैन मुनियों के कुछ ग्रन्थ नहीं मिलते तो मेवाड़ का इतिहास अधूरा ही रहता । यह मत मेरा ही नहीं अपितु कई सुप्रसिद्ध इतिहासकारों का भी है । सुप्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टाड ने मांडल उपासरे के यति श्री ज्ञानचन्द्रजी को अपना गुरु माना है एवं इस उपासरे के संग्रह के आधार पर इतिहास के कई पृष्ठ लिखे हैं। क्या ही अच्छा हो, मुनिवर्ग इस ओर भी अपना ध्यान देवें और इस अमूल्य निधि का संकलन ही नहीं अपितु अनुवाद के साथ प्रकाशन करावें । मौर्य वंश, राजा संप्रति एवं चित्रांग समस्त पश्चिमी भारत पर सम्राट अशोक के पौत्र सम्प्रति का राज्य था और मेवाड़ इसी राज्य का एक अंग था । सम्प्रति जैन धर्म का महान प्रचारक था। उस समय जीवहिंसा का पूर्ण निषेध था। चित्तौड़गढ़ को मौर्य वंश के जैन राजा चित्रांग ने बसाया । चित्तौड़ में सातवीं शताब्दी तक मौर्यों का ही राज्य रहा । राजा भर्तृ भट, अल्लट एवं वैरिसिंह मेवाड़ के राजाओं की जैन श्रमण संस्कृति के प्रति श्रद्धा के प्रश्न पर राजा गुहिल से मेवाड़ के शासकों की वंशावली की शृंखला ली जावे तो इस शृंखला के अनुसार सत्रहवीं पीढ़ी में भर्तृ भट द्वितीय राजा हुआ जिसने वि०सं० १००० में भर्तृपुर (भटेवर) गांव बसा गढ़ बनवाया तो सर्वप्रथम श्री आदिनाथ भगवान के चैत्य के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया एवं इसका नाम गुहिल विहार रखा गया। इसी गाँव से जैनों का भर्तृ पुरीय (भटेवर) गच्छ निकला। इन्हीं राजा भर्तृ भट का पुत्र राजा अल्लट (आलूरावल) था जो राजगच्छ के आचार्य प्रद्युम्नसूरि का भक्त था। राना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13