Book Title: Mevad ke Shasak evam Jain Dharm Author(s): Jaswantlal Mehta Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 6
________________ ३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड सिंह पी पटराणी जपतलवामा चित्ताड पर मत पुरयाभटवर गच्छकजनाचायक उपदर्श स:35 में श्याम पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया।' राणी जयतल्ल देवी की जैनधर्म पर अधिक श्रद्धा थी। राणी जयतल्ल देवी की श्रद्धा एवं अंचलगच्छ के आचार्य अमितसिंह सूरि के उपदेश से राणा तेजसिंह के पुत्र समरसिंह ने अपने राज्य में जीवहिंसा पर रोक लगा दी। राणा समरसिंह ने उक्त श्याम पार्श्वनाथ के अपनी माता द्वारा बनवाये गये मन्दिर के पास पौषधशाला हेतु भूमि दी एवं इस मन्दिर व उपाश्रय की स्थायी व्यवस्था हेतु कुछ हाट (दुकानें) एवं बाग की भूमि भटेवरगच्छ के आचार्य प्रद्युम्नसूरि को दी और चित्तौड़ की तलहटी, आघाटपुर (आहड़), खोहर और सज्जनपुर के सायर के महकमों से रकम दी जाने की व्यवस्था की ताकि व्यय की व्यवस्था स्थायी रूप से चलती रहे । इस सम्बन्धी एक शिलालेख मन्दिर के द्वार पर बने छबने पर खुदा हुआ चित्तौड़ के पुराने महलों के चौक में गड़ा हुआ मिला है। यह शिलालेख सं० १३३५ वैसाख सुदि ५ का है। इस शिलालेख के मध्य में श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा खुदी हुई है जिससे यह प्रकट है कि यह छबना जयतल्ल देवी के बनाये हुए श्याम पार्श्वनाथ के मन्दिर के द्वार का है। यह मन्दिर बाद के आक्रमण में मिसमार हो गया। राणा लाखा, मोकल एवं कुम्भा मेवाड़ के राणा लाखा (लक्षसिंह) (वि० सं० १४३६ से १४७८), राणा मोकल (वि० सं० १४७८ से १४६०) राणा कुम्भा (वि० सं० १४६० से १५२५) के समय में भी मेवाड़ के राणाओं पर जैन धर्म का बहुत प्रभाव रहा है। कई जैन मन्दिरों का निमार्ण एवं जीर्णोद्धार हुआ है जिनके कतिपय उदाहरण इस प्रकार हैं कि राणा लाखा के समय वि० सं० १४७६ में आसलपुर दुर्ग में श्री पार्श्वनाथ चैत्य का जीर्णोद्धार हुआ, वि० सं० १४७८ में राणा मोकल के समय में जावर के जैन-मन्दिरों का निर्माण कराया गया। वि० सं० १४८५ में संघपति गुणराज द्वारा चित्तौड़ के कीर्ति स्तम्भ का जीर्णोद्धार कराया एवं इस कीर्तिस्तम्भ के पास महावीर स्वामी का मन्दिर बनवाया गया। वि० सं० १४६१ एवं १४६४ के नागद्र ह (नागदा) एवं देवकुल-पाटकपुर (देलवाड़ा) के कई जैन मन्दिरों के शिलालेख हैं जिनसे यह जाहिर है कि यहाँ खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनवर्द्धनसूरि, जिनसागरसूरि, जिनचन्द्रसूरि एवं सदानन्दसूरि ने कई प्रतिष्ठा उत्सव राणा कुम्भा के काल में कराये। देलवाड़े के मन्दिर विशाल एवं बावन जिनालय वाले हैं। मन्दिर भव्य एवं कलात्मक हैं, एक मन्दिर को देखने से तो आबू के दिलवाड़ा मन्दिरों की याद ताजा हो जाती है। मन्दिर की कारीगरी देखने से ऐसा अनुमान होता है कि मन्दिर की कला ही दोनों स्थानों के नाम देलवाड़ा पुकारे जाने का आधार रहा हो । इस मन्दिर की एक विशेषता तो आबू के मन्दिरों से भी ज्यादा यह है कि मन्दिर के बिल्कुल बाहर के भाग में बहुत ही सुन्दर कोराणी कराई गई है जिसको देखते हुए वहाँ से हटने की इच्छा नहीं होती है। इस स्थान पर राजमन्त्री रामदेव श्रेष्ठी, वीसल एवं श्रेष्ठी गुणराज के परिवारों का उल्लेख करना भी आवश्यक है । रामदेव का नवलखा परिवार महाराणा खेता (क्षेत्रसिंह, वि० सं० १४३१ से १४३६) के समय से ही प्रसिद्ध रहा है। वि० सं० १४६४ के नागदा के अद्भुतजी की मूर्ति के लेख में इस परिवार की परम्परा दी गई है। रामदेव महाराणा खेता एवं उसके पुत्र लाखा के समय मन्त्री था। रामदेव के दो पुत्र सहण एवं सारंग महाराणा कुम्भा एवं मोकल के समय में मुख्य मन्त्री थे। यह परिवार देलवाड़े का रहने वाला था ।५ नागदा व देलवाड़ा की कई मूर्तियों के लेख में इस परिवार का नाम है। अन्य कई मूर्तियों के लेख एवं ग्रन्थ प्रशस्तियाँ इस परिवार की मिली हैं। रामदेव नवलखा की एक पुत्री का विवाह विक्षल से हुआ, विसल के पिता ईडर के राजा रणमल का मन्त्री था। विसन के १. राजपूताना का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ८०, ८२. १. राजपूताने का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ४८०. ३. वही, ४. जैन परम्परा नो इतिहास, त्रिपुटी महाराज, पृ० ३४. ५. वीरभूमि चित्तौड़, श्री रामवल्लभ सोमानी, पृ० १६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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