Book Title: Mevad ke Shasak evam Jain Dharm Author(s): Jaswantlal Mehta Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 8
________________ -0 Jain Education International ३४ कमयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड स्वस्ति श्री एकलिंगजी परसादातु महाराजाधिराज महाराणाजी श्री कुम्भाजी आदेसातु मेदपाट रा उमराव, थानेदार कामदार समस्त महाजन पंचकास्य अप्रं आपणे अठे श्रीपूज तपागच्छ का तो देवेन्द्रसूरिजी का पंथ का तथा पुनम्यागच्छ का हेमाचारजजी को परमोद है। धरमज्ञान बतायो सो अठे अगा को पंथ को हावेगा जणीने मानांगा पूजागा । परथम ( प्रथम ) तो आगे सु ही आपणे गढ़ कोट में नींव दे जद पहीला श्री रिषभदेव जी रा देवरा री नींव देवाड़े है, पूजा करे है, अबे अजु ही मानेगा, सिसोदा पग का होवेगा ने सुरेपान ( सुरापान ) पावेगा नहीं और धरम मुरजाद में जीव राखणो, या मुरजाद लोपागा जणी ने महासता ( महासतियों ) की आण है और फेन करेगा जणी ने तलाक है, सं० १४६१ काती सु० ५।१ राणा रायसिंह एवं सांगा राणा रायसिंह (वि० सं० १५३० से १५६६ ) एवं राणा सांगा (वि० सं० १५६६ से १५०४) के समय में भी जैन धर्म की बड़ी प्रगति हुई— खरतरगच्छ, तपागच्छ, चैत्रगच्छ बृहद्गच्छ भृतपुरीयगच्छ, आंचलगच्छ के कई साधुओं का विचरण मेवाड़ में था। इस काल में जैनग्रन्थ लेखन कार्य बहुत हुआ । वि०सं० १५५३ में विनयराजसूरि द्वारा उपासकदशांग चरित्र लिखा गया, वि० सं० १५५५ में शत्रुंजय माहात्म्य वि० सं० १५७४ में पार्श्वपुराण, वि०सं० १५९७ में स्थानांगसूत्र की प्रतिलिपियाँ कराई गई। राणा सांगा जैनाचार्य धर्मरत्नसूरि का परमभक्त था । धर्मरत्नसूर के आवागमन के समय कई मील उनके सामने गया था, उनके व्याख्यान सुने एवं शिकार भी कुछ समय के लिए छोड़ दिया था । " राणा रतनसिंह एवं मंत्री सिंह मेवाड़ के राणा रतनसिंह द्वितीय (वि० सं० १५८४ से १५००) के मन्त्री, कर्म (कर्मराज) कर्माने वि० सं० १५८७ वैसाख विद ६ को शत्रुंजय का सातवाँ उद्धार कराया और पुण्डरीक के मन्दिर का जीर्णोद्धार करा उसमें आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित की इस कार्य के लिये ऐसा कहा जाता है कि कर्मसिंह ने राणा रत्नसिंह की सिफारिश से गुजरात के सुलतान बहादुरशाह से फरमान प्राप्त कर शत्रुंजय का उद्धार कराया क्योंकि मुसलमानों के समय बहुधा मन्दिर बनाने की मनाई थी। लेकिन एक मत यह कि गुजरात का शाहजादा बहादुरशाह भागकर राणा सांगा की शरण में चित्तौड़ आगया । कर्माशाह ने उसे विपत्ति के समय एक लाख रुपये इस वास्ते दिये कि जब वह गुजरात सिंहासन पर बैठे तब शत्रुंजय की प्रतिष्ठा कराने की आज्ञा देवे । कालान्तर में जब वह गुजरात का बादशाह बन गया तब उसने पूर्व वचनानुसार कर्माशाह को अनुमति दी राणा प्रतापसिंह (वि० सं० १६२८ से १६५३) ++ राणा प्रताप का राज्यकाल प्रायः संघर्य में ही बीता । समय-समय पर एक स्थान को छोड़कर दूसरे, १. राजपूताना के जैनवीर, अयोध्याप्रसाद गोयल, पृ० ३४०. २. वीरभूमि चितौड़, रामवल्लभ सोमानी, पृ० १६५. ३. शत्रुंजय का शिलालेख वि० सं० १७८७. ४. राजपूताने का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ७०३. ५. बीरभूमि चितौड़, रामवल्लभ सोमानी, पृ० १६६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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