Book Title: Merutungasurina Prabandh Chintamani ma Varnit Ketlik Dhyanpatra Babato Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 2
________________ 110 अनुसंधान-२४ क्षणे स्मरण नथी, एटली चोखवट कर्या पछी ज आ वात आगळ वधारुं. प्र.चिं. मां 'विक्रमार्कप्रबन्ध' वर्णनमां मुनिजीए एक टिप्पणीमां नोंधेल पाठान्तरमां निम्नांकित पाठ जोवामां आवे छे : " तेन सकललोकसमक्षंप्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताभयप्रदम् । माङ्गल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥ इति द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका कृता ।" (पृ. ७) आना आधारे मने प्रश्न उद्भव्यो के मूळे दिवाकरजीना आ श्लोकने ज हेमचन्द्राचार्ये महादेव बत्रीशीना प्रथम पद्य तरीके अपनावी लीधो होय तेवुं न होय ? केम के दिवाकरजीनी जेम ज तेओने पण महादेव शिवलिङ्ग साथै प्रयोजन पार पाडवानुं हतुं; अने बीजुं तेओ तेमनी रचनामां असन्दिग्ध भाषामां दिवाकरजीने बिरदावतां लखे छे के 'क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्था अशिक्षितालापकला क्व चैषा ? । ' अलबत्त, दिवाकरजीनी क्लिष्ट पदावली अने प्रस्तुतिनी तुलनामां आ पद्यनी रचना अत्यन्त सरल - प्रांजल जणाय छे, अने जो दिवाकरकृत महादेव द्वात्रिंशिका यथावत् उपलब्ध होय तो मारो उठावेलो आ सवाल स्वयमेव निर्मूल थई जाय छे, ते पण नोंधी लेवुं रघुं. Jain Education International (२) प्र.चिं. मां सामुद्री पुरातत्त्वनी एक विलक्षण वात आवे छे : भोज राजानी सभामां एकवार कोई वहाणवटी आव्यो, तेणे राजा सामे एक मीणनी पट्टी रजू करी, जेमां केटलांक काव्योनी छाप देखाती हती. तेणे कह्युं के "समुद्रमां एक स्थळे अकस्मात् मारुं वहाण स्खलित थतां में खलासीओने समुद्रमां ऊतार्या; तेमणे करेली तपासमां एवं जाणवा मळ्युं के ते स्थळे एक डूबेलुं शिवमन्दिर हतुं, अने तेनी साथे अथडायाथी वहाण स्खलना पामेलुं. मध्यसमुद्रमां होवा छतां तेमां पाणी भरायां नथी- एवं अनुभवावाथी माणसो मन्दिरमां अंदर गया. त्यां एक भींत उपर अक्षरो कोतरेला देखातां आ मीणपट्टिका उपर ते उपसावीने अमे लई आव्या छीए." For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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