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स्वाध्याय : श्रीमेरुतुङसरिना 'प्रबन्धचिन्तामणि'मां वर्णित
केटलीक ध्यानपात्र बाबतो
प्रबन्धसंग्रहो ए गुजरातना इतिहासनी जाणकारी पामवा माटेनां अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अने उवेखवां न पालवे तेवां साधनो छे. जैन मुनिओए लखेला आ प्रबन्ध-ग्रन्थो न होत तो गुजरातनो इतिहास घोर अन्धकारमा ज अटवातो होत - एम कहेवामां कोई अतिशयोक्ति नथी ज.
आ संग्रहोमां 'प्रबन्धचिन्तामणि', स्थान आगq छे. पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजीए आ ग्रन्थ- श्रेष्ठ संपादित संस्करण सिंघी ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित करीने बहु मोटुं प्रदान कर्यु छे. जो के 'प्रबन्धचिन्तामणि' माटे तेओए एक प्रकल्प आयोज्यो हतो, अने तदनुसार, आ ग्रन्थनुं सर्वाङ्गी अध्ययन कुल पांच भागोमां आपवानी तेमनी अभिलाषा हती, जेनो निर्देश प्रकाशित प्र.चिं. नां प्रारंभनां पृष्ठोमां प्राप्त छे. दुर्भाग्ये, आ प्रकल्प पूरो नथी थयो जणातो. जो थयो होत. तो कांईक नवं ज नवनीत मळ्युं होत.
अत्रे, मुद्रित प्र.चिं. नो स्वाध्याय करतां केटलीक वातो ध्यानार्ह तथा ममळाववा जेवी तथा सहुने चखाडवा जेवी लागी, तेवी वातो विषे नोंध करवामां आवे छे :
(१) श्री सिद्धसेन दिवाकरजीए ३२ बत्रीशी रच्यानुं प्रसिद्ध छे. श्री हेमचन्द्राचार्ये पण त्रणेक बत्रीशी बनावी छे, जेमां एक छे महादेवबत्रीशी : जे अत्यारे प्रक्षेपो साथे ४५ पद्यप्रमाण प्रचलित छे. आ महादेवबत्रीशीर्नु प्रथम पद्य 'प्रशान्तं दर्शनं यस्य" ए छे. हवे प्र.चिं. मां जोवा मळती एक पादटीप वांच्या पछी मनमां सहज प्रश्न ऊभो थाय छे के आ पद्य हेमाचार्यहशे के दिवाकरजी- हशे ?
मने, दिवाकरजीनी उपलब्ध १९ बत्रीशीमां महादेव द्वात्रिंशिका छे के नहि ?- छे तो ते आजे पूरेपूरी उपलब्ध छे के केम ? आ अंगे आ
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अनुसंधान-२४
क्षणे स्मरण नथी, एटली चोखवट कर्या पछी ज आ वात आगळ वधारुं. प्र.चिं. मां 'विक्रमार्कप्रबन्ध' वर्णनमां मुनिजीए एक टिप्पणीमां नोंधेल पाठान्तरमां निम्नांकित पाठ जोवामां आवे छे :
" तेन सकललोकसमक्षंप्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताभयप्रदम् ।
माङ्गल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥ इति द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका कृता ।" (पृ. ७)
आना आधारे मने प्रश्न उद्भव्यो के मूळे दिवाकरजीना आ श्लोकने ज हेमचन्द्राचार्ये महादेव बत्रीशीना प्रथम पद्य तरीके अपनावी लीधो होय तेवुं न होय ? केम के दिवाकरजीनी जेम ज तेओने पण महादेव शिवलिङ्ग साथै प्रयोजन पार पाडवानुं हतुं; अने बीजुं तेओ तेमनी रचनामां असन्दिग्ध भाषामां दिवाकरजीने बिरदावतां लखे छे के
'क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्था
अशिक्षितालापकला क्व चैषा ? । '
अलबत्त, दिवाकरजीनी क्लिष्ट पदावली अने प्रस्तुतिनी तुलनामां आ पद्यनी रचना अत्यन्त सरल - प्रांजल जणाय छे, अने जो दिवाकरकृत महादेव द्वात्रिंशिका यथावत् उपलब्ध होय तो मारो उठावेलो आ सवाल स्वयमेव निर्मूल थई जाय छे, ते पण नोंधी लेवुं रघुं.
(२) प्र.चिं. मां सामुद्री पुरातत्त्वनी एक विलक्षण वात आवे छे : भोज राजानी सभामां एकवार कोई वहाणवटी आव्यो, तेणे राजा सामे एक मीणनी पट्टी रजू करी, जेमां केटलांक काव्योनी छाप देखाती हती. तेणे कह्युं के "समुद्रमां एक स्थळे अकस्मात् मारुं वहाण स्खलित थतां में खलासीओने समुद्रमां ऊतार्या; तेमणे करेली तपासमां एवं जाणवा मळ्युं के ते स्थळे एक डूबेलुं शिवमन्दिर हतुं, अने तेनी साथे अथडायाथी वहाण स्खलना पामेलुं. मध्यसमुद्रमां होवा छतां तेमां पाणी भरायां नथी- एवं अनुभवावाथी माणसो मन्दिरमां अंदर गया. त्यां एक भींत उपर अक्षरो कोतरेला देखातां आ मीणपट्टिका उपर ते उपसावीने अमे लई आव्या छीए."
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राजा तरत माटीनी बीजी पट्टिका मंगावी, ते मीणपट्टी उपर चडावीने ते ऊलटा अक्षरो पंडितो पासे वंचावराव्या तो केटलांक संपूर्ण पद्यो उपरांत एक अरधुं पद्य उकेली शकायुं. राजानी सूचनाथी ए अरधुं पद्य स्वमतिकल्पनाथी पूरुं करवानो अनेक पंडितोए यत्र कर्यो, पण राजानुं मन न मान्युं तेणे धनपालकविने पूर्ति करवा सूचवतां तेमणे जे उत्तरार्ध बनाव्युं तेती राजा खूब तुष्ट थयो, तो धनपाले कह्युं के "आ रामेश्वर (महादेव) ना मंदिरनी भींत परनी प्रशस्तिनां काव्यो लागे छे, हवे में जे श्लोकार्थ रच्यो छे ते शब्दो अने अर्थ वडे मूल रचना साथे बिलकुल मळती ज होवा विषे मने श्रद्धा छे; पण आमां जो फेरफार नीकळे तो हवे पछी मारे यावज्जीव काव्यरचना न करवी. "
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राजा धननुं प्रलोभन आपी ते वहाणवटीने फरी समुद्रमां मोकल्यो. छ महिनानी महेनत बाद ते शिवालयने शोधी, तेनी भींत परनुं बधुं ज लखाण मीणपट्टी पर उपसावी लावी तेणे राजाने सोंप्युं. राजाए ते काव्य जोयुं तो धनपालनी रचना साथे ते शब्दशः मळतुं आवतुं हतुं. आ काव्यो 'खण्डप्रशस्ति' तरीके प्रसिद्ध थयां.
दसमा सैकामां थयेली सामुद्री पुरातार्त्तिक शोधनी आ केवी अद्भुत वात छे ! आजे जेने अक्षरोनी छाप लेवी के 'रबींग' कहेवामां आवे छे, ते माटे साव अनभिज्ञ नाविकोए मीणपट्टिकानी केवी श्रेष्ठ प्रयुक्ति प्रयोजी छे ! (पृ. ४०)
(३) भोजराजा-सम्बन्धित ज एक प्रसंग छे- मानतुङ्गसूरिनो. बाण अने मयूर जेवा कविओनी चमत्कारसभर इष्टोपासना जोया पछी, गमे तेनी प्रेरणाथी राजा जैनाचार्य मानतुङ्गसूरिने बोलावीने चमत्कार बताडवानी मागणी करी, जेना जवाबमां भक्तामर स्तोत्रनी रचना वगेरे घटना बनी होवानुं प्रसिद्ध छे. परन्तु आ वार्तालाप दरम्यान जैनाचार्ये राजाने जे जवाब आप्यो छे, ते अत्यन्त मार्मिक अने मननीय छे. तेमणे कह्यं के- "मुक्तानामस्मद्देवतानामत्र कोऽतिशयः सम्भवति ? तथापि तत्किङ्कराणां सुराणां प्रभावाविर्भावः कोऽपि विश्वचमत्कारकारी दर्श्यते" (पृ. ४५ ) अर्थात् अमारा देव तो मुक्त छे,
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अनुसंधान-२४ वीतराग छे; तेमनो कोई चमत्कार संसारमा न संभवे. हा, तेमना सेवक एवा संसारी देवोनो प्रभाव जरूर जोवा मळे. चमत्कारप्रेमी वीतराग-भक्तो माटे मनन योग्य जवाब छे.
(४) सिद्धराज जयसिंहे मालवा पर जीत प्राप्त कर्या पछी यशोवर्मा राजाने ते पाटण लावेलो. तेनुं आतिथ्य करतां करतां ते तेने सहस्रलिंग सरोवर, त्रिपुरुष प्रासाद इत्यादि धर्मस्थानो जोवा लई गयो अने दर वर्षे पोते ते बधांना निर्वाहार्थे क्रोड रूपियानो सद्व्यय करतो होवार्नु जणावीने पूछ्यु के मारी आ प्रवृत्ति बराबर गणाय के नहि ?
जवाबमां यशोवर्माए कह्यु : हुं महान मालवदेशनो धणी, छतां तमाराथी पराजय केम पाम्यो ? तेनुं एक ज कारण छे - देवना धननुं भक्षण. अमारा वडवाओए भगवान महाकालेश्वरने माटे जे देवद्रव्य समर्पलुं छे, तेनुं अमे लोकोए सतत भक्षण कर्या कर्युः तेना कारणे अमे अमारो पराजय नोतर्यो छे. माटे हुं तमने भलामण करुं छु के ज्यां सुधी तमारी गादी पर आवनारा राजाओ आ (एक क्रोड) देवद्रव्य देवखाते अर्पण करी देवानी प्रणालिका जाळवी राखशे त्यां सुधी वांधो नथी; पण तेनो लोप थशे के भक्षण करशे, तो विपत्तिओ तमारां मूळ उखेडी नाखशे. (पृ. ६१)
देवद्रव्य-रक्षण-भक्षणना विषयमां के मार्मिक निरीक्षण !
(५) रुद्रमहालयनी प्रतिष्ठा पछी तेना पर ध्वजारोपण थयुं त्यारे सिद्धराजे तमाम जैन मन्दिरो परथी ध्वजा ऊतरावी लीधी. तेणे आदेश को के जेम मालवदेशे महाकालेश्वरना मन्दिर पर ध्वजा फरकती होय त्यारे जैन मन्दिरो ध्वजारहित राखवामां आवे छे, ते प्रमाणे अहीं पण राखवानुं छे.
आ पछी ते कोईक प्रसंगवश श्रीनगर महास्थाने (वडनगर) गयो तो त्यां जिनालयो पर पण ध्वजा जोई. तेने न रुच्यु. तेणे ब्राह्मणोने आ विषे पृच्छा करी, तो तेमणे कडं के "महाराज ! स्वयं महादेवे कृतयुगमां आ महास्थाननी स्थापना करी छे. तेमणे जाते ज अहीं ऋषभदेव अने ब्रह्माना प्रासादो निर्मावीने ते पर त्यारे ध्वजारोपण कर्यु हतुं. आ प्रासादोनी ने ध्वजानी परंपरा ४ युग जेटली पुराणी छे. वळी 'नगरपुराण' ना निर्देश प्रमाणे
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आ क्षेत्र शत्रुंजयतीर्थनी तळेटी गणायुं छे." आम कही तेमणे पुराणना श्लोको टांक्या (पृ. ६२-६३).
पण राजाना मननो खटको हजी मटतो नथी तेम जोईने तेने वधु प्रतीति कराववा माटे ते लोकोए, ऋषभदेवना देरासरना भंडारमांधी, भरत चक्रवर्तीना नामवाळु अने पांच मनुष्यो भेगा थाय तो ज उपाडी शकाय तेवुं एक 'कांस्यताल' (कांसीजोडु) अणाव्युं, अने राजाने देखाड्युं आ पछी राजाने समाधान थयुं, अने एक वर्ष पछी पाटण आदि क्षेत्रोनां जिनालयोमां पुनः ध्वजा चढाववानी छूट आपी. (पृ. ६३).
आमां ध्वजा न चडाववानो आदेश, पछी चडाववानी छूट ते ऐतिहासिक व्यवहार होवानुं समजाय छे. 'कांस्यताल'नी वात शुं हशे ? ते कल्पनानो विषय छे. आटला आटला युगो पछी पण आवी वस्तु तथा ते प्रासादो ९००-१००० वर्षो पूर्वे सुधी जळवायां होय तेवी कल्पना जरा वधु पडती लागे. जो के त्यार पछी विधर्मी मूर्तिभंजकोए आ धरती पर स्थापत्य, इतिहास, साहित्य, पुरातत्त्व, संस्कृति वगेरेना सन्दर्भोमां जे विनाश वेर्यो छे, तेनी तो कल्पना पण थीजवी मूके तेवी छे. एवं बनी पण शके के घणुं घणुं पौराणिक, हजारेक वर्ष अगाऊ लगी, क्यांक क्यांक सचवायुं होय, अने आक्रमणोना युगमां ते ध्वंस पाम्युं होय.
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(६) 'कामलता' नामक स्त्री- राजराणी, गणिका, महियारणनी करुण कथा आपणा कथासाहित्यमां खूब जाणीती छे. तेना पर रास के ढाळियां प्रकारनी मोटी तथा सज्झाय जेवी नानी गुर्जर रचनाओ बनी होवानुं ध्यानमां आवे छे. ते स्त्रीनो प्रबन्ध पण अहीं भोजप्रबन्धमां वर्णवायो छे. राजा रजवाडीथी वेगपूर्वक पाछो फरतो हतो, त्यारे भीडमां मचेली नास भागने लीधे महियारणनी छाशभरेली माटलीओ फूटी जतां रेलायेला छाशना रेलाने निरखीने खडखडाट हसती ते महियारणने राजा 'रडवाने टाणे हसवानुं प्रयोजन' पूछे छे, तेना जवाबमां ते स्त्री एक ज श्लोकमां पोतानी वीतककथा आम वर्णवे छे :
हत्वा नृपं पतिमवेक्ष्य भुजङ्गदष्टं देशान्तरे विधिवशाद् गणिकाऽस्मि जाता ।
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अनुसंधान-२४ पुत्रं भुजङ्गमधिगम्य चितां प्रविष्टा
शोचामि गोपगृहिणी कथमद्य तक्रम् ? ।। (पृ. ४९)
आ वांचतां मने सोरठी लोकसाहित्यनो एक चारणी छंद सांभरी आव्यो, जे उपरना श्लोकनु ज लोकसाहित्यिक रूप छे :
"नृप मार चली अपने पियु पे पियु नाग डस्यो दुःखमें परि हुँ गनिकाघर वास वसी करी हुं सुत संग भयो 'जरबेकुं चली नदी पूर बढ्यो निकसी तरी हुं महाराज अब तो आहीर भई
छाछको शोक कहा करी हुं ?" लोकसाहित्यनां आवां कवित्तोमा केटलुं बधुं भरवामां आव्यु छ ! अने एक मजानी वात, प्र.चि.कहे छे तेम, ते महियारणनां मही ते दहाडे वेरायां, तेनो रेलो नदीमां गयो, तेथी ते दिवसथी ते नदी 'मही' नदी एवा नामे प्रसिद्ध थई गई.
लोककथाओ, प्रसिद्ध पात्रोने तथा प्रसंगोने जोडती रहीने पण, केटलुं बधुं आपणने आपती रहे छे !
(७) एक दिगम्बर आचार्य श्वेताम्बरोने जीती लेवा माटे गुजरातमांपाटण आवेला. सिद्धराजनां राजमाता मयणल्लादेवी पितृपक्षे कर्णाटकनां दिगम्बर मतानुयायी होवाथी तेमणे विचित्र ने विषम शरत राखेली: श्वेताम्बरो हारे तो बधा दिगम्बर बने, अने दिगम्बरो हारे तो देशनिकाल पामे. आ पछी पण, पोतानो ज पक्ष लेवा माटे तेमणे राजमाता पर भरपूर दबाण-लागवग चलावेला, तेना प्रत्याघातरूपे श्वेताम्बरोए केटली ठावकाईथी काम लीधुं, तेनुं ढूंकुं पण स्पष्ट बयान प्र.चि.मां मळे छे :
"अथ श्रीमयणल्लदेवी कुमुदचन्द्रपक्षपातिनी, अभ्यासवर्तिनः सभ्यांस्तज्जयाय नित्यमुपरोधयन्ती श्रुत्वा श्रीहेमचन्द्राचार्येण 'वादस्थले दिगम्बरा: स्त्रीकृतं १. बळी मरवा
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सुकृतमप्रमाणीकरिष्यन्ति सिताम्बरास्तं स्थापयिष्यन्ती' ति तेषामेव पावत् तद्वृत्तान्ते निवेदिते राज्ञी व्यवहारबहिर्मुखे दिगम्बरे पक्षपातमुज्झांचकार" । (पृ. ६७)
तत्कालीन धार्मिक राजखटपटोनो आ उपरथी अंदाज मळी रहे छे. (८) केटलीक रस पडे तेवी विगतो जाणवा लायक छे :
अमदावादमां आजनो कोचरब विस्तार, मूळे 'कोछरब' नामे देवी, तेनुं मन्दिर त्यां (आशापल्लीमां) सिद्धराजे बनावेलुं, तेम प्र. चि. मां नोंध छे. आजे कोचरब' विस्तारमां ते देवीनुं स्थान छे के केम ? ते तपासनो विषय गणाय (पृ. ५५)
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सौराष्ट्र-गोहिलवाडना वलभीपुर पछीना 'वालाक' प्रदेशनी पहाडी भूमिमां सिंहपुर ( आजनुं सिहोर) नी स्थापना, ब्राह्मणो माटे थईने सिद्धराजे करी हती, तेना शासनमां १०६ ग्राम पण आपेलां. (पृ. ७१ )
'निरन्न' शब्द प्रयोज्यो छे, ते परथी 'नरणां' शब्द बन्यो जणाय छे. (पृ. ७२)
कोल्लापुरनो अने त्यांना महालक्ष्मीदेवीना मन्दिरनो आमां पण उल्लेख मळे छे. (पृ. ७३)
'सोरठियो दूहो भलो' एवी उक्ति सौराष्ट्रना दूहा माटे आवे छे. झवेरचंद मेघाणीए नोंध्युं छे तेम भवनाथ (जूनागढ ) ना मेळामां रातोनी रातो सुधी अस्खलित दूहाओनी रमझट बोलती. आ वात १४मा सैकामां पण प्रवर्तती होवानी संभावना जणावे तेवो एक उल्लेख प्र.चि.मां आ रीते छे :
"अथ कदाचित् चारणौ द्वौ सुराष्ट्रामण्डलविषयौ दूहा - विद्यया मिथः स्पर्धामानौ" (पृ. ९२ ).
तत्कालीन अपभ्रंश-मण्डित गुजराती भाषामां ते चारणो द्वारा कहेवायेला बे दूहा पण आ ज प्रसंगमां वांचवा मळे छे.
गुजरात-सौराष्ट्रमां आजे 'सगर' नामे ज्ञाति छे. तेनुं पगेरुं आ ग्रन्थमां
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अनुसंधान-२४ आ प्रमाणे जडी आवे छे : "तदनु चौलुक्यराज्ञा कृतज्ञचक्रवर्तिना आलिगकुलालाय सप्तशतीग्राममिता विचित्रा चित्रकूटपट्टिका ददे । ते तु निजान्वयेन लज्जमाना अद्यापि सगरा इत्युच्यन्ते ।" (पृ. ८०)
(९) संगीतना इतिहासमां हरणने आकर्षq, तेना गळे हार पहेराववो - ए प्रसंग प्रसिद्ध छे. कुमारपाल राजानी सभामां पण आवो ज प्रसंग बन्यानुं प्र.चि, नोंधे छे. एक परदेशी संगीतज्ञे सभामां राव करी के मारा संगीतथी आकर्षाई आवेला हरणनी डोकमां में मारो सुवर्ण-दोरो नाख्यो, तो ते लईने ते जतुं रघु; मने पाछु मेळवी आपो. सभामां 'सोल'नामे गायक गन्धर्व हतो, तेने राजाए आ माटे सूचव्यु. ते वनमा गयो, गीतगान वडे हरणवृन्दने आकर्षीने गातो गातो नगर सुधी तेने खेंची लाव्यो. तेमां पेखें सोनानो दोरो पहेरेलु मृग पण हतुं.
आ कला जोईने हेमाचार्ये खूब चमत्कृति अनुभवी. तेमणे 'संगीतकलाना प्रभाव' विषे ते गायकने पूछतां, तेणे कडं के वृक्षना सूका अने कपायेला टुंठा पर पांदडां उगाडवानी ताकात संगीतमा छे. तेमणे तेम करी देखाडवा सूचवतां, आबुपर्वत परथी एक खास वृक्ष मंगाववामां आव्यु अने तेनी एक शाखाना ठुठाने राजगढीना आंगणे ज कोरी माटीना क्यारडामां वाववामां आव्यु. पछी तेणे पोतानी संगीतकलानो प्रयोग आरंभ्यो, तेना परिणामे ते शाखा पर ताजां कोमल कोमल पान बेठेलां सौए नजरे जोयां. (पृ. ८०)
आवो प्रसंग बैजु बावरा अने संत हरिदास स्वामीना जीवनमा घट्यो होवानी वात सांभळवा मळी छे.
(१०) हेमाचार्यना निमित्तज्ञाननी पण आ प्रकारनी ज एक घटना आमां नोंधाई छे. पूर्वावस्थामा कुमारपाळ रजळतो रजळतो स्तंभतीर्थे आवे छे त्यारे आ माणस भविष्यनो राजा होवानी तेमणे करेली, ते आ प्रमाणे :
"तत्रागते तस्मिन्नुदयनेन पृष्टः श्रीहेमचन्द्राचार्यः प्राह-लोकोत्तराण्यस्याङ्गलक्षणानि । सार्वभौमोऽयं नृपतिर्भावीति । आजन्म दरिद्रोपद्रुततया तां वाचं
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यथार्थाममन्यमानेन तेन क्षत्रियेणासम्भाव्यमेतदिति विज्ञप्ते, "सं. ११९९ वर्षे कार्तिकवदि २ रवौ हस्तनक्षत्रे यदि भवत: पट्टाभिषेको न भवति तदाऽत: परं निमित्तावलोकनसन्न्यासः" इति पत्रकमालिख्यैकं मन्त्रिणेऽपरं तस्मै समार्पयत् । (पृ. ७८)
विद्या अने कलाना ए युगमां, आq बनवं कांई अशक्य नथी लागतुं.
(११) अलबत्त, केटलीक कल्पित चमत्कारिक वातो पण आ प्रबन्धोमां छे ज. दा.त. कुमारपाल तथा हेमाचार्यनी गिरनार-यात्रानी वात. बन्ने महानुभावो ज्यारे गिरनार पहोंचे छे, त्यारे 'बन्ने जणा उपर जशे तो मृत्यु थशे' - एम कहीने गुरु राजाने समजावे छे, ते वातनुं वर्णन आ प्रमाणे छ :
"तदनन्तरमुज्जयन्तसन्निधौ गते तस्मिन्नकस्मादेव पर्वतकम्पे सञ्जायमाने श्रीहेमचन्द्राचार्या नृपं प्राहु:- ‘इयं छत्रशिला युगपदुपेतयोरुभयोः पुण्यवतोरुपरि निपतिष्यतीति वृद्धपरम्परा । तदावां पुण्यवन्तौ, यदियं गीः सत्या भवति तदा लोकापवादः । नृपतिरेवातो देवं नमस्करोतु न वयमित्युक्ते नृपतिनोपरुध्य प्रभव एव सङ्घन सहिताः प्रहिताः, न स्वयम् ।" (पृ. ८३)
आ आखीये वात नितान्त कल्पना छे. 'कुमारपाल प्रतिबोध तथा 'प्रबन्धकोश'मां आ वातनुं तथ्य प्राप्त छे. वात एम छे के ते समये पहाड चडवा माटे पाज-पद्या न होवाथी राजा चडी शके तेवी स्थिति न हती. राजा चडवा जाय अने पडे के वागे तो अजैनो हांसी करे अने भंभेरणी करे, आवा कारणे स्वयं आचार्ये ज राजाने ऊपर जवानी ना कही हती, जेनो राजाए स्वीकार कर्यो हतो. आमां छत्रशिला कंपवासमेतना चमत्कारनी कोई ज वात नथी. छतां लोकरंजन खातर आq तत्त्व प्रबन्धकारो द्वारा उमेरायुं होय के पछी लोकोमा आ वात आ रीते ज चलणी बनी होय तो ते बनवाजोग छे. बाकी तो राजाए ते ज वखते त्यां नवी पाज बांधवानो आदेश आप्यो होवानी हकीकत पण प्र.चि. ज आपे छ :
"छत्रशिलामार्ग परिहत्य परस्मिन् जीर्णप्राकारपक्षे नव्यपद्याकरणाय श्रीवाग्भटदेव आदिष्टः । पद्योपक्षये व्ययीकृतास्त्रिषष्टिलक्षाः ।" (पृ. ९३)
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आनो संकेत स्पष्ट छे : पाज न होवाथी ज राजाने ऊपर चडवानी गुरुए ना कही हती.
(१२) हेमाचार्यना स्वर्गगमन पछी, तेमना देहनो अन्तिम संस्कार थयो ते स्थानने प्र. चि. 'हेमखड्डू'ना नामे ओळखावे छे. "तत्र हेमखड्ड इत्यद्यापि प्रसिद्धिः ।" (पृ. ९५ )
आ 'हेमखाड़' आजे क्यां छे, ते जग्यानुं शुं थयुं, कोना कबजामां छे, ते विषे अंधारपट ज प्रवर्ते छे.
हमणां एक प्रमाण एवं जाणवा मळ्युं छे के आ स्थाने पौषधशाला के तेवुं कोई धर्मस्थान हतुं, जे पछीथी विधर्मीओना हाथमां जतां नष्ट थईने आजे त्यां दरगाह जोवा मळे छे. एक वृत्तपत्रे आ अंगे ऐतिहासिक विगतो भेगी करीने प्रकाशित करतां तेने हुल्लड प्रकारना आक्रमणनो भोग बनवुं पड्युं अने अंक पाछो खेंचवा साथे जाहेरमां माफी मागवी पडी होवानुं पण आधारभूत रीते जाणवा मळे छे.
आपणे कोई साथे क्लेश न करीए, परंतु आपणा ज ऐतिहासिक स्थानादिनी आ स्थिति थयेली जोवानुं पण आपणने ज फावे, ते पण स्वीकार ज पडे - खेदपूर्वक.
(१३) एक अत्यन्त रसप्रद वात प्र. चि.मां एवी मळे छे के सं. १२७७-७८मां वस्तुपाल मंत्री संघ साथे तीर्थयात्राए गया, त्यारे प्रभासपाटण क्षेत्रमां तेमने 'सोमनाथ महादेव'नो एक ११५ वर्षनी उमर धरावतो ब्राह्मण पूजारी मळेलो, अने तेणे मंत्रीने कहेलुं के 'अहीं हेमाचार्ये सोमेश्वरनां प्रत्यक्ष दर्शन करावेलां.' "प्रभु श्रीहेमाचार्यै: श्री कुमारपालनृपतये जगद्विदितं श्रीसोमेश्वरः प्रत्यक्षीकृत इति पञ्चदशाधिकवर्षशतदेश्यधार्मिकपूजाकारकमुखादाकर्ण्य तच्चरित्र - चित्रितमना: " (पृ. १०१ ).
आ पूजारी संवत् ११६३ लगभग जन्मेलो होय तो हेमाचार्यवाळा प्रसंगे ते ५० थी ६५ वर्षनो आशरे होय, अने वस्तुपाल गया त्यारे ११५ नो होय. जे होय ते, पण सोमेश्वरना साक्षात्कारनी वातने- तेनी सत्यताने आ एक सबळ आधार मळी रहे छे ते चोक्कस.
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________________ June-2003 119 (14) वराहमिहिर अने भद्रबाहुनी वातो प्रसिद्ध छे. तेमां सामान्य परंपरा एवी छे के निस्तेज बनेल वराहमिहिर छेवटे तापस बने छे, मरीने व्यन्तर थाय छे, संघने उपद्रवो करे छे अने गुरु तेना निवारण माटे ‘उवसग्गहरं स्तोत्र' रचे छे. प्रबन्धकोश (पृ.४)मां आवी ज वात छे. प्र.चि. आ मुद्दे जरा जुदी ज वात आपे छे, जे जरा विशेष प्रतीतिकर के बुद्धिगम्य लागे छे, प्र.चि. प्रमाणे : "इत्युक्तियुक्तिभ्यां प्रबोध्य ते महर्षयः स्वं पदं भेजुः / इत्थं बोधितस्यापि तस्य (वराहमिहिरस्य) मिथ्यात्वधत्तूरितस्य कनकभ्रान्तिरिव तेषु मत्सरोच्छेकात् तद्भक्तानुपासकान् अभिचारकर्मणा कांश्चन पीडयन् कांश्चन व्यापादयन् तद्वृत्तान्तं तेभ्यो ज्ञानातिशयादवधार्य उपसर्गशान्तये 'उवसग्गहरं पासं' इति नूतनं स्तोत्रं रचयांचक्रुः / " (पृ. 119) / अर्थात् वराहमिहिर मरीने व्यन्तरदेव थया पछी नहि, पण त्यां ज, वराहमिहिर तरीके ज ते, द्वेषवृत्तिप्रेरित ऊंधा रस्ते चडीने मारणउच्चाटनादि क्रियाओ करवा द्वारा लोकोने उपद्रव करे छे, अने तेनुं वारण गुरु 'उवसग्गहरं' बनावीने आपे छे. बहु ज गंभीरताथी विचारवायोग्य आ प्रतिपादन लागे छे. -शी.