Book Title: Mathura ka Prachin Jain Shilpa
Author(s): Ganeshprasad Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 7
________________ mAIDANCaswamaAAmWEAssamanaraaaaaaaaaaaawRINACIAAIAARABIAASABAIKAMANAIDABADASAdarsanbroatiane SINRNIचार्य IF LF yo श्राआनन्दाअन्५ श्रीआनन्दन्थ wimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwood २०० इतिहास और संस्कृति के आचार्यों की बारीकी वाली चुटकियों को केवल अपनाया ही नहीं, बल्कि उसे विकसित भी किया। कला नये रूप में, नये विषय और नयी शैली से फैली। सौंन्दर्य को उत्कीर्ण करने में 'मथुरा के शिल्पियों' ने अद्भुत गौरव प्राप्त किया था। बाह्य-रूप के निर्माण के साथ-साथ आन्तरिक-भावों की अभिव्यक्ति के समन्वय में इनकी कुशलता चरम-सीमा पर पहुंच चुकी थी। इसकी तुलना ही सम्भव नहीं है । इन हाथों में कला, 'ललित-कला' बनी। कला का माप-दण्ड छोटा पड़ गया। "वृक्ष, वनस्पति, कमलों के फुल्ले और लतर, पशु-पक्षी" आदि के रूप में जो शोभा के लिए प्राचीन-काल से प्रयुक्त होते चले आ रहे थे उसे उन्होंने अपनाते हुए उनमें नवीन विषयों का समावेश कर उनमें जीवन प्रतिष्ठापित कर दिया। मानवों की प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए प्रकृति का चित्रण और उद्यानक्रीड़ायें, एवं जल-क्रीड़ाओं के दृश्यों को स्वच्छन्दतापूर्वक वेदिका-स्तम्भों में उत्कीर्ण कर एक उदाहरण उपस्थित किया है । 'मथुरा' जैसे ललित वेदिका-स्तम्भ अन्यत्र दुर्लभ हैं। शोभनार्थ अलकारों की संख्या में वृद्धि हुई, उनमें अनेक पूर्व समागत थे, अनेकों की नूतन कल्पनायें भी हुई। सब से प्राचीन जैनप्रतिमाएँ, स्तूप, आदि 'मथुरा से ही प्राप्त हैं।। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि-'मूर्ति-शिल्प' बौद्धों के पूर्व अतिप्राचीन काल से जैनों की धरोहर रहा है । कुषाण-युग से पूर्व की कोई बुद्ध प्रतिमा अभी तक नहीं प्राप्त हुई है। बोधगया, साँची और भरत की विपुलकला-सामग्री में कहीं भी तथागत की (बुद्ध की) मूर्ति का चित्रण नहीं मिलता, बुद्धदेव के प्रतीकों हाथी, बोधिवृक्ष, धर्मचक्र और स्तूप आदि चिन्हों द्वारा उनका मान होता रहा। ये चारों प्रतीक क्रमशः बुद्ध के जीवन की घटनाओं से ही सम्बन्धित रहे हैं। 'हाथी' जन्म से, 'बोधिवक्ष' सम्बोधि से, 'धर्मचक्र' प्रथम उपदेश से, और 'स्तूप' परिनिर्वाण का सूचक माना गया है। इन प्रतीकों का सम्बन्ध लुम्बिनी, बोधगया, सारनाथ और कुशीनारा से माना जाता है। भारतवर्ष में निर्मित विशालकाय-प्रतिमाओं में केवल 'दस यक्ष'प्रतिमाएँ प्राप्त हई हैं, जिनमें अधिक संख्या में मथुरा से ही प्राप्त हैं। प्रथम प्रतिमा जो 'परखम' यक्ष की है, वह 'मथुरा' से ही प्राप्त हुई है। मथुरा के ही 'बरोदा' नाम के स्थान से दूसरी भी विशालकाय यक्ष प्रतिमा मिली है। तीसरी भी 'मथुरा' के ही एक गाँव में पूजी जाने वाली 'मनसादेवी' यक्षिणी की है। चौथी 'मथुरा के ही 'अचिर' गाँव से प्राप्त हुई है। कंकाली-टीले के दक्षिण पूर्व भाग में डॉ० वर्जेस को खुदाई में जो एक 'सरस्वती' की प्रतिमा प्राप्त हुई थी, उसे लोहे का काम करने वाले एक लोहिका-कारुक गोप ने स्थापित कराया था। इसी स्थान पर धनहस्ति की धर्मपत्नी और गुहदत्त की पुत्री ने 'धर्मार्थी' नामक श्रमण के उपदेश से एक शिलापट्ट दान किया था, जिस पर स्तूप की पूजा का सुन्दर दृश्य अंकित है। जयपाल, देवदास, नागदत्त और नागदत्ता की जननी 'श्राविकादत्ता' ने आर्य संघ सिहे की प्रेरणा से 'वर्धमान'-प्रतिमा को ईस्वी सन् ६८ में दान किया था। स्वामी महाक्षत्रप 'शोडास' के राज्य संवत्सर ४२ में श्रमण-श्राविका अमोहिनी ने अयंवती की प्रतिमा का दान किया था। तपस्विनी विजयश्री ने जो राज्यवसु की पत्नी देविल की माता और विष्णभव की दादी थीं, एक मास का उपवास करने के पश्चात् संवत ५० (१२८ ई०) में वर्धमान-प्रतिमा की E Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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