Book Title: Mathura ka Prachin Jain Shilpa
Author(s): Ganeshprasad Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 10
________________ मथुरा का प्राचीन जैन - शिल्प २०३ after के जो अनेक स्तम्भ प्राप्त हुए हैं, उन पर कमल के अनेक फूलों की अत्यन्त सुन्दर सजावट है । इस आधार पर वह वेदिका 'पद्मवर वेदिका' का नमूना जान पड़ती है, जिसका उल्लेख 'रायपसेनीय- सुत्त' में आया है । सम्भव है कि धनिक उपासक सचमुच के खिले कमलों द्वारा इस प्रकार की पुष्पमयी वेदिका निर्मित कराकर विशेष अवसरों पर स्तूप की पूजा करते रहे हों । कालान्तर में उन कमल पुष्पों की आकृति काष्ठमय वेदिका स्तम्भों पर उत्कीर्ण की जाने लगी, और सबसे अन्त में पत्थर के स्तम्भों पर कमल-पुष्पों की वैसे ही अलंकरण और सजावट युक्त बेल उकेरी जाने लगी । ऐसी ही 'पद्मवर- वेदिका' का एक सुन्दर उदाहरण ‘मथुरा' के देव निर्मित जैन- स्तूप की खुदाई में प्राप्त शुंग-कालीन स्तम्भों पर सुरक्षित रह गया है । वेदिका स्तम्भों आदि पर स्त्री-पुरुषों, पशु-पक्षियों, लता-वृक्षों, आदि का चित्रण किया जाता था । कंकाली-टीले से प्राप्त जैन - वेदिका स्तम्भों पर ऐसी बहुत सी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, जिनमें तत्कालीन आनन्दमय लोक-जीवन की सुन्दर झाँकियाँ मिलती हैं । इन मूर्तियों में विविध आकर्षक - मुद्राओं मैं खड़ी स्त्रियों के चित्रण अधिक हैं । किसी स्तम्भ पर कोई वनिता उद्यान में पुष्प चुनती दिखलाई देती है, तो किसी में कंदुक-क्रीड़ा का दृश्य है । कोई सुन्दरी झरने के नीचे स्नान का आनन्द ले रही है, तो कोई दूसरी स्नान करने के उपरान्त वस्त्र परिधान कर रही है । किसी पर युवती गीले केशों को सुखाती है तो किसी पर वालों के सँवारने में लगी है । किसी के कपोलों पर लोध्र-चूर्ण मलने का, तो किसी पर पैरों में आलता भरने का तो अन्य किसी पर पुष्पित-वृक्ष की छाया मैं बैठकर वीणा वादन की तल्लीनता अंकित है । अनेक पर नारियों का अंकन नृत्य - मुद्रा में है । इस अंकन में प्रकृति और मानव जगत की सौन्दर्य - राशि के साथ ही नारी-जीवन भी प्राणवान दीखता है । जैन-धर्म के प्राचीन इतिहास पर मूल्यवान उल्लेख कल्पसूत्र में ( ग्रन्थ में) हुआ है, उससे जब हम प्राचीन-मथुरा के प्राचीन शिलालेखों ''शिलालेख' - 'मथुरा' से प्राप्त अनेक 'शिलालेख' प्रकाश डालते हैं । जैन संघ के जिस विपुल संघटन का सम्बन्धित गण, कुल और शाखाओं का वास्तविक रूप में पाते हैं, तो यह सिद्ध हो जाता है कि 'कल्पसूत्र' की स्थिविरावली में उल्लिखित इतिहास प्रामाणिक हैं । जैन संघ के आठ गणों में से चार का नामोल्लेखन मथुरा के लेखों में हुआ है । अर्थात् कोट्टियगण, त्रारणगण, उद्दे हिकगण, और वेशकाटिका गण । इन गणों से संबंधित जो कुल और शाखाओं का विस्तार था, उनमें से भी लगभग बीस नाम मथुरा के लेखों में विद्यमान हैं । इससे प्रमाणित होता है कि जैन भिक्षु सघ का बहुत ही जीता जागता केन्द्र 'मथुरा' में विद्यमान था, और उसके अन्तर्गत अनेक श्रावक-श्राविकाएँ धर्म का यथावत पालन करती थीं । I 'देवपाल' श्रेष्ठि की कन्या 'श्रेष्ठिसेन' की पत्नी 'क्षुद्रा' ने किया था । श्रेष्ठि वेणी की पत्नी पट्टिसेन की माता कुमार मित्रा ने सर्वतोभद्रका प्रतिमा की स्थापना करायी थी । वज्री शाखा के के शिष्य थे, इनके गुरु थे । मणिकार जयभट्ट की दुहिता लोह वीणाज फल्गुदेव की पत्नी मित्रा ने कोट्टि - गण के अन्तर्गत बृहद दासिक कुल के वृहन्त वाचक गणि जैमित्र के शिष्य आर्य ओदा के शिष्य गणि आर्य भगवान वर्धमान की प्रतिमा का दान आर्या वसुला का उपदेश सुनकर एक वाचक आर्यं मातृदत्त जो आर्य वलदत्त Jain Education International Jite आद्यान व आत सामान व आमद For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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