Book Title: Mathura ka Prachin Jain Shilpa
Author(s): Ganeshprasad Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 1
________________ wwaitasamunacceaniasiSSADALocadaNAGAR श्री गणेशप्रसाद जैन मथुरा का प्राचीन जैन-शिल्प Opn उत्तर भारतीय प्राचीन जैन-कला केन्द्रों में 'मथुरा' का स्थान अग्रगण्य था। 'ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी से लेकर 'ईसा' की ११वीं शताब्दी तक 'मथरा' नगरी जैन-धर्म और कला का प्रधान केन्द्र रही है। 'कंकाली-टीला' तथा अन्य निकटवर्ती स्थलों से प्राप्त सैकड़ों जैन-तीर्थकर-मूर्तियाँ व मांगलिक चिन्हों से अंकित आयागपट्ट, देव-किन्नरों आदि से वन्दित स्तम्भ, स्तूप, अशोक, चम्पक, नागकेशर आदि वृक्षों के नीचे आकर्षक-मुद्राओं में खड़ी शालिमंजिकाओं से युक्त सुशोभित वेदिकाओं के स्तम्भ, कलापूर्ण शिलापट्ट, शिरदल आदि यह घोषित करते हैं कि 'मथुरा' के शिल्पियों की तुलना में अन्य स्थलों के शिल्पियों की क्षमता अत्यधिक न्यून थी। उपर्युक्त अवशेषों से यह भी स्पष्ट होता है कि तत्कालीनजनता में जैन-धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा थी। जैन-कला के प्राप्त अवशेष ई० पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर ११ वीं शताब्दी तक के हैं। आगे की शोधों में उनसे भी प्राचीनतम प्रमाण मिलने की सम्भावना है । कंकाली-टीले से प्राप्त शिला-लेखों के आधार पर डॉ० 'बुल्हर' का मत है कि-ईसा की दूसरी शताब्दी के पूर्व कंकाली-टीलों में जैनों का एक बहुत बड़ा प्रासाद या देवालय था । (Epilnd. Vol II. P. 319) इसी के एक सौ वर्षों पश्चात उसी स्थान पर एक दूसरे प्रासाद का निर्माण किया गया । 'शुंग-काल' में देव-स्थानों को प्रासाद कहा जाता था। जैसा कि 'बेस' नगर से प्राप्त शिलालेखों में है। (A.S.R. 1913-14, P. 190)। ___'मथुरा' भारत के कतिपय उन प्राचीन नगरों में है, जो जैन-धार्मिक नगरों के तथ्यों को प्रागैतिहासिक काल तक ले जाते हैं। भारत ही नहीं, ईरान, यूनान और मध्य एशिया की संस्कृतियों से भी इस नगर का सम्बन्ध रहा है। यही कारण है कि यहाँ की 'वास्तु कला, मूर्ति-कला एवं लोक-जीवन' में इन सभी संस्कृतियों की अद्भुत झाकियाँ मिलती हैं। ___ 'मथुरा' के कंकाली-टीले की खुदाई १८५३ ई० में जनरल सर 'अलेक्जेन्डर' ने, सन् १८७१ ई० में जनरल 'कनिंघम' ने, सन् १८७५ ई० में मि०'गौस ने और सन् १८८७ ई० से लेकर सन् १८६६ ई० तक डा० 'फुहरर' और डा० 'बैनर्जी ने करायी है। इन खदाइयों में एक प्राचीन स्तूप, ११० शिलालेख, य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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