Book Title: Mathura ka Prachin Jain Shilpa Author(s): Ganeshprasad Jain Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 5
________________ BadinandanAAAJANARDainikBARDAtIndian من محمد عليه به بعد به م طالعه به منزل غرفتها عريعرفها بعد ما VINA आचार आचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दमन्थश्राआनन्दग्रन्थ wwwnwr १६८ इतिहास और संस्कृति वास्तु-कला-'जैन वास्तु-कला' के प्राचीनतम नमुने मौर्य सम्राट अशोक और दशरथ के समय में निर्मित, बिहार राज्य के राज गिरि की सोन भण्डार, नागार्जुनी और बराबर पहाड़ियों की गुफाएँ, तथा उड़ीसा की खण्डगिरि और उदयगिरि गुफाएँ शंग-काल की सम्पदा हैं। 'मथुरा' का देवनिर्मित बौद्-स्तूप' या 'बौद्वस्तुप' भी कुषाण-काल का अपने पूरे वैभव का प्रमाण है। गुप्त-कालीन नमूने बहुत अल्प मात्रा में उपलब्ध हैं। परन्तु मध्यकालीन अनेक मन्दिर जैसे राजस्थान में ओसियां जी और आबू के, उत्तर-प्रदेश में खजुराहो, सोनागिरि आदि अपनी महत्ता का गौरव आज भी संजोये अपनी कहानी कहने में सक्षम हैं। चित्रकला-जैन-चित्र-कला का प्रारम्भ भी ई० पूर्व पहली शती से होता है। इस समय के कुछ चित्र उड़ीसा के उदयगिरि तथा खण्डगिरि की गुफाओं में हैं। तामिलनाडु की सित्तन्नवासल गुफाओं की चित्रकारी उत्तर-गुप्तकाल (६००-६२५ ई०) की है। एलोरा के कैलास मन्दिर की दीवालों पर ८वीं से १३वीं शती के कुछ चित्र हैं। इसी प्रकार के चित्र तेरापुर की गुफाओं में भी हैं। उत्तर-मध्यकाल में लघु चित्रकला विशेष रूप से पश्चिम-भारत में पनपी । ताड़ पत्र पर सन् ११०० में लिखी निशीथ-चूर्णी पोथी के चित्र प्राचीनतम हैं। इसके बाद ताड़पत्र तथा कागज की ही पोथियों में जैनचित्र मिलते हैं। महापुराण, कल्पसूत्र, कालकाचार्य-कथा, महावीर-चरित्र, उत्तराध्ययन, स्थानांग सूत्र, शालिभद्र चउपई आदि अनेक चित्रित ग्रन्थ उपलब्ध हैं। ग्रन्थों पर लगी लकड़ी की तख्तियाँ भी सुन्दर चित्रों से अलंकृत हैं । कपड़े पर चित्रों का एक अच्छा उदाहरण सन् १४३३ ई० की जैन-पंच-तीर्थी का है। अनेक विज्ञप्ति-पत्र जो गृहस्थों द्वारा जैनाचार्यों को वर्षावास के निमन्त्रण के लिए भेजे जाते थे, चित्रों से अलंकृत हैं। श्री मद्भागवत जैसे ब्राह्मण ग्रन्थों में भी कहीं-कहीं जैन-विषयों का चित्रण प्राप्त होता है । मध्य-कालीन जैन चित्रों में लाल रंग की पार्श्वभूमि, मुख्यतः सफेद, काले, नीले, हरे, और मजीठे रंग का प्रयोग वास्तु-कला का सीमित चित्रण विशेष दर्शनीय है। मुगल-कला के प्रभाव में इनमें सोने का प्रयोग भी बहुलता से होने लगा था। मूर्तियों का प्रारम्भिक निर्माण-काल : जैन-तीर्थंकरों की उपलब्ध मूर्तियों से प्रमाणित होता है कि-ईसा की दो शताब्दी पूर्व से ही इनका निर्माण प्रारम्भ हो गया था। खारवेल के हाथी-गुम्फा के लेख (१६५ ई० के लगभग) में देवतायतन संस्कार तथा 'जिन-सन्निवेश' का वर्णन है। खारवेल ने कलिंग-देश के अधिष्ठाता 'जिन' की प्राचीन प्रतिमा का सन्निवेश कर स्थापना कराया था। इसी लेख में 'चक्क' का भी वर्णन है। यह 'चक्क' बौद्धों के समान ही 'धम्म-चक्क' धर्म का एक प्रमुख चिन्ह था। कंकाली-टीले से प्राप्त बहुत जिन-प्रतिमाओं के बारे में यह निर्णायक रूप में अभी तक नहीं कहा गया कि उनमें कितनी कुषाण-काल के पूर्व की हैं। किन्तु प्रासादों के तोरण और उपान्त भागों के टूटे हुए खण्ड अवश्य ही शंगकाल के हैं। 'मथुरा' के प्राचीन शिल्पियों ने जैन-तीर्थंकरों की जिन मूर्तियों का जैसा प्रारम्भिक रूप दिया: वही परम्परा निरन्तर विकसित होती रही। जैन-प्रतिमाएँ मुख्य रूप में तीन प्रकार की हैं-१, खड्गासन, २. पद्मासन, और ३ सर्वतोभद्र (चौमुखी) । प्राचीन तीर्थंकरों की मूर्तियों पर उष्णीष नहीं होते थे । अनेकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13