Book Title: Mantra ki Sadhakta Ek Vishleshan
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 1
________________ मन्त्र की साधकता : एक विश्लेषण नन्दलाल जैन, जैन केन्द्र, रीवा... न शास्त्रों में मंत्रविद्या विद्यानुप्रवाद एवं प्राणावाय पूर्वो कुछ प्रमुख मन्त्र का महत्त्वपूर्ण अंग रही है। इसका ७२ कलाओं में भी उल्लेख भारतीय धर्म-परम्परा में मंत्र-जप एक पुण्यकारी अनुष्ठान है। इस विद्या के बल पर ही भूतकाल में अनेक आचार्यों ने माना जाता है। यद्यपि इनका विकास मुख्यतः आध्यात्मिक जैन-तंत्र को सुरक्षित, संरक्षित एवं संवर्धित किया है। फलतः और पारलौकिक उद्देश्य से हुआ होगा, पर इनसे आनुषंगिक यह प्राचीन विद्या है, जो महावीर के युग से पूर्व भी लोकप्रिय रही फल के रूप में इहलौकिक उद्देश्य और भौतिक सिद्धियाँ भी होगी। शास्त्रों में इसका विवरण.११ दृष्टिकोणों और नौ अनुयोग प्राप्त होती हैं। फलतः प्रमुख उद्देश्य के अनुरूप मंत्र भी अनेक द्वारों से दिया गया है। इसका लक्ष्य आत्मकल्याण और इहलौकिक प्रकार के होते हैं। कुछ मंत्र आध्यात्मिक होते हैं, कुछ भौतिक कल्याण दोनों है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में यह विद्या कामनापरक होते हैं और कुछ तांत्रिक (विष दूर करना आदि) गोपनीय रही होगी। इसमें गुरु का अपूर्व महत्त्व था। ऐतिहासिक होते हैं। अनेक वर्षों के विशिष्ट सामर्थ्य से भी ये तथ्य प्रकट दृष्टि से इस विद्या के उत्थान-पतन के युग आए, पर ७वीं शती होते हैं। उदाहरणार्थ - 'म' में सिद्धि और संतान का सामर्थ्य के बाद शक्तिवाद और तंत्रविद्या के विकास के साथ इसको होता है, 'व' एवं 'ब' में रोगादि अनिष्ट-निवारण की क्षमता होती पुनर्जीवन मिला और अब तो यह विद्या वैज्ञानिक युग में योग - है और 'न और द' आत्म-शक्ति जागृत करते हैं। इन विशिष्ट ध्यान के एक अंग के रूप में प्रतिष्ठित हो रही है और व्यक्तिगत उद्देश्य वाले मंत्रों की तुलना में, कुछ मंत्र ऐसे होते हैं, जो सभी तथा सार्वजनिक कल्याण की वाहक बनती जा रही है। प्रकार के उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। इन्हें हम मूल-मंत्र भी कह मंत्र शब्द के अनेक अर्थ हैं। मूलत: यह मन की प्रवृत्तियों सकते हैं। हम इसी कोटि के केवल चार मंत्रों की यहाँ चर्चा को नियंत्रित करता है, उन्हें बहुदिशी के बदले एक-दिशी बनाता करेंगे। है। यह भौतिक और आध्यात्मिक दोनों उद्देश्यों की पूर्ति में ओम-जैनों के अनुसार, यह सभी मंत्रों का मूल है। यह मनोकामना पूर्ति एवं आत्मानुभूति के लिए अन्तः शक्ति जागरण पंचपरमेष्ठियों के प्रथम अक्षरों के संयोग से बना है, अत: पूज्य में सहायक होता है। मंत्रों का स्वरूप विशिष्ट अक्षर रचना, विन्यास पुरुषों और उनके गुणों का स्मरण कराता है। यह दर्शन, ज्ञान एवं विशिष्ट ध्वनि-समूह के रूप में होता है, जिसके बारम्बार तथा चारित्र के त्रिरत्नों का भी प्रतीक है। इसमें तीन अक्षर हैं 'अ, उच्चारण से ऊर्जा का उद्भव और विकास होता है, जो हमारे उ और माये क्रमशः निर्माण, संरक्षण तथा विनाश की प्रक्रियाओं जीवन को सुख और शक्तिमय बनाती है। वस्तुतः मंत्रों की के प्रतीक हैं। यह मंत्र दिव्य ऊर्जा का प्रतीक है। इसे अन्य साधकता के अनेक आयाम होते हैं - (१) ये हमारे अशुभ एवं परम्पराओं में भी माना गया है। 'आमेन' इसका पश्चिमी रूप ऋणात्मक कर्मों का नाश कर उन्हें सकारात्मक या आध्यात्मिक है। यह (१) तीन लोक, (२) सत-चित्-आनन्द की त्रयी, (३) रूप प्रदान करते हैं, (२) ये हमारे भौतिक एवं आध्यात्मिक पथ सत्व-रज-तम की त्रिगुणी, (४) वेदत्रयी, (५) देवत्रयी एवं त्रिको प्रशस्त करते हैं, (३) ये हमारे व्यक्तित्व को विकसित करते ब्रह्मवाद (सर्वव्यापक) आदि का प्रतीक है। यह अनंत और हैं और हमारे चारों ओर के आभा-मण्डल या लेश्या रूपों को शन्य (वृत्त) का भी प्रतीक है। इसके विशिष्ट वर्णों का उच्चारण प्रशस्तता देते हैं और (४) ये हमारे लिए चिकित्सक का काम । सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करता है और साध्य सिद्धि में उपयोगी कर हमें स्वस्थ बनाते हैं। होता है। aniraniramidnidwidwardwordwordwoodwordGrord- १८RAdminirdwoodwordwordwardroidrodword-ad-ordiwand Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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