Book Title: Mananiya Lekho ka Sankalan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 49
________________ कोस्ट बेनिफिट के एनेलेसिरा मात्र रूपये, आने, पाई में गिनकर.देहरासर के निर्माण की आज्ञा तो भगवान मह्मवीर भी प्रदान नहीं करते । उनके शास्त्रों का सष्ट आदेश है कि मंदिर निर्माण के समय मनुष्य या पशु तो क्या छोटे से छोटे कौट से लेकर वनस्पति तक की यथासंभव जयणा होनी चाहिये । मंदिर के लिये जमीन क्रय से लेकर प्रतिष्ठा का कलश चढ़ने तक, जमीन के स्वामी से लेकर श्रमिक तक का किसी प्रकार से शोषण न हो, उसका पूर्ण ध्यान रखने का आदेश है। मंदिर निर्माण से संबंधित सब लोगों को प्रसन्न रखने के सभी उचित उपाय धर्म शास्त्र में “मस्ट" हैं। महा-आमात्य विमल शाह गुजरात के सर्वेसर्वा होने के नाते जमीन अधिग्रहित भी कर लेते, पर उन्होंने आबू की जमीन प्राप्त करने के लिये रोकड़ धन राशि देकर, कीमत की अनुचित माँग को भी स्वीकार किया । तत्कालीन राजतंत्र के गोल सिक्के जमीन पर बिछाने पर दो सिक्कों के बीच की जमीन मुफ्त में ही ले ली जायेगी एसा मानकर अधर्म से बनने के लिये अपनी टकसाल में विशेष चौकोर सिक्कों का निर्माण कराया । उन्हें जमीन पर बिछाकर जमीन प्राप्त करने की प्रामाणिकता की किंवदन्ती इतिहास के पृष्ठों में अंकित कराई । वस्तुपाल-तेजपाल की कथा तो शायद पुरानी प्रतीत हो, अभी हाल में ही मोतीशाह शेठने भायखला के विख्यात जैन मंदिर का निर्माण कराया उस समय उसका निर्माण करने वाले महुआ के रामजी सलाट को प्राण-प्रतिष्ठा के प्रसंग पर टोकरी भरकर सोने के आभूपण दिये । बाप-दादाओं का ण चुकाने के लिये उमजी ने ये आभूपण बेच दिये । उसकी जानकारी होते ही शेठ ने सलाट को बुलाकर उलाहना देते हुए कहा कि “मैंने ये आभूषण तुम्हें पहनने के लिये दिये थे, बेचने के लिये नहीं । कर्ज था तो मुझे कहते।'' इतना कहकर उन्होंने मुनिम को दूसरी टोकरी भरकर आभूषण देने का आदेश दिया। किसी भी धर्मस्थान निर्माण और धर्मअनुष्ठान सम्पन्न कराने में जैन लोग जयणा पालन को अनिवार्य अंग मानते हैं । इसलिये वे छोटे-बड़े जीवों की हत्या होती हो ऐसे विशालकाय यंत्रों के उपयोग को भी वर्जित मानते हैं । उनका गोदर निर्माण लेबर (हयुमन एज वेल एज एनिमल) इन्टेन्सिव हो जाता है। उन तथ्यों को ध्यान में रखकर सोचें कि यदि दस करोड़ रूपयों के खर्न से भी जिनालय विधिपूर्वक बने तो ये दस करोड़ विभिन्न स्तरों पर मजदूरी के रूप में गरीब कारीगरों व पशुओं के पेट में पहुँनते हैं । और शिल्प स्थापत्य के अनुपम नमूने जैसा मंदिर बोनस रूप में बन जाता है। हर दूसरे वर्ग अकाल में गेजी देने का व्यर्थ प्रयारा करती सरकार था का धुंआ उडाती है, या मंदिर निर्माण में प्रयुक्त अरबों रूपयों की राशि, जिसकी पाई-पाई गरीव सलाट श्रमिकों को काम देकर मानपूर्वक उनकी बेव तक पहुंचाने वाले भवत धन का अपव्यय करते हैं, उसका निर्णय करना बहुत ही सरल है। . - पश्चिम का वैचारिक सार्वभौमत्व (हेजीमनी आफ थॉट) नस नस में इस सीमा तक पहुँच गया है कि कोई भी विचार, शब्द या प्रति युरोपियन या अमेरिकन वेश-भूषा पहनकर प्रस्तुत हो तो सुंदर, रूपवती लगने लगती है। भारतीय परिवेश में ये ही प्रवृतियाँ जंगली, पिछडी हुई, 'आर्थोडक्स', रूढिचुस्त प्रतीत होती है। भारतीय शिल्प-स्थापत्य कला के रक्षण, संवर्धन के लिये इन्स्टीट्युट या म्युजियम निर्माण के लिये करोड़ों का व्यय करें. तो "अहो अहो" का नाद सर्वत्र गूंज उठेगा, क्योंकि ऐसे म्युजियम-इन्स्टीट्युट्स तो ब्रिटिश लिगेसी है । देशभर में बनते मंदिर जीवन के उदात्त मूल्यों को लोकजीवन में टिकाये रखने के साथ-साथ 'साइड बाय साइड' शिल्प स्थापत्य कला को प्रेक्टिकल इम्प्लीमेन्टेशन' द्वारा टिकाये रखने का काम करते हैं, तो दुर्व्यय है, क्योंकि यह भारतीय पद्धति है ! अजागृत मन में घुसी हुई वैचारिक विकृतियाँ दूर न होगी तब तक इन दोहरे मानकों को दूर करना संभव नहीं होगा। यदि गांधी द्वारा प्रचलित जीवन मूल्य प्रस्तुत व उपयोगी है और गांधीजी का पुतला सभी को इन जीवन मूल्यों की याद कराने का निमित्त बनने में कारणभूत हो जाये तो उस पुतले के निर्माण के लिये किया गया व्यय वसूल माना जायेगा । उसी प्रकार से लोकोत्तम तीर्थंकरों व राम-कृष्ण के जीवन मूल्य प्रस्तुत व हितकारी हों तो उन जीवन मूल्यों को 'स्मृति पथ पर लाने के निमित्त रूप बनती मूर्तियाँ या मंदिरों की ओर अधिक से अधिक लोगों को लाने हेतु उन्हें आकर्षक स्वरूप देने हेतु प्रयुक्त धन भी उपयोगी ही है। कोई यह मान लेने की भूल जरा भी न करें कि मूर्ति के दर्शन या मंदिर जाने मात्र से किसी का जीवन परिवर्तित हो जाता है । इस नात में कोई तथ्य नहीं है । परंपरा से बिछुडे पढ़े-लिखे लोगों को श्रेष्ठ पुस्तकों का वाचन जिस तरह हिला देता है, उसी तरह परंपरा से जुड़ा विशाल जनसमाज रोज नहीं तो कभी-कभी मंदिर या मूर्ति से नयेनये स्वप प्राप्त कर लौटता है । भगवान की मूर्ति में साक्षात् भगवान का निरूपण कर उनमें ही खो जाने वाले माण्डवगढ़ के महा-आमात्य या कृष्ण दिवानी मीरा की बातें जिन्हे मावं दंतकथा प्रतीत होती हों, उन्हें भी भगवान के नहीं तो भक्तों (47) Jain Education Iglemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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