Book Title: Mananiya Lekho ka Sankalan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 47
________________ हैं। बाजारू हिन्दी फिल्म की अभिनेत्री का नाम व रूप श्रोता-दर्शक के मन में एक विशेष प्रकार की कृति को जागृत करता है, उसी तरह लोकोत्तम महापुरुषों के नाम-रूप का प्रभाव भी होता है। पूरा देश सतत एम.टी.वी. और झो.टी.वी. पर अश्लील शब्दों व दृश्यों का श्रवण-दर्शन करता रहे तो समाज का क्या होगा, हम सबको उसके परिणाम का व्यक्तिगत अनुभव है । इस प्रक्रिया को परिवर्तित करना हो और संस्कारी प्रजा का निर्माण करना हो तो उसके आँखं-कॉन और हृदय को एक भिन्न स्तर के नाम-रूप का स्पर्श होता रहे, ऐसा प्रयत्न करना चाहिये । गाँव-गाँव में खड़े देवालय ऐसे ही प्रयत्न के अंग है। परन्तु देश की सर्वोत्तम स्वर सामाज्ञियों के मुख से गाये जाते प्रामक गीत 'या करोड़ों डॉलर के व्यय से बने डिजनीलेण्ड या करोड़ों रुपयों के व्यय से बने एसेल वर्ल्ड जैसे उपभोक्ता संस्कृति के प्रतीकों से लोगों को लौटा लाना सरल कार्य नहीं है। यदि देवालय और मूतियाँ अहिंसा, सत्य, अनौर्य और अपरिग्रह के स्वर को सबल करने वाले लोकोतर महापुरूषों के प्रतीक हैं, तो हिल स्टेशनों के पंचतारा होटल उपभोग प्रधान संस्कृति के प्रतीक है । प्रतीकों से अधिक महता तो दोनों विचारधाराओं की है । समग्र विश्व में संतोष की परम्परागत पूरब की संस्कृति और रक्त प्यासी यक्षिणी (जर्मन विनारक वुल्फगांग के अनुसार) पश्चिमी संस्कृति के मध्य खूखार. युद्ध दल रहा हो तो हमें किस जीवनशैली और उसके प्रतीकों के पृष्ठ में खड़ा रहना चाहिये, उसका निश्चय कर लेना चाहिए । मंदिर जाने के पश्चात् भी कई व्यक्ति अहिंसा व अपरिग्रह का आदर्श नहीं सीख पाते हैं, तो “धेट इज नोट बिकोझ ऑफ हिज गोइंग टु टेंपल, धेट इन इनस्साईट ऑफ होज गोइंग टु टेंपल ।" जब विदेशी चैनल देखकर समग्र समाज भेड़िये की तरह भूख-लोलुप बन जाता हो तो "धेट इज बिकोज ऑफ हिज सीइंग ध चेनल्स" । यह अंतर अवश्य समझ लेना होगा । अपने नितन में अंतर्निहित ऐसे “सेल्फकोन्टेडिकशंस" को परखने और उनसे ऊपर उठने की कला भी हमें : सीखनी पड़ेगी । एक ओर हम कहते हैं कि मेकॉले की शिक्षा पद्धति को हनुमान - भक्ति की तरह संभाल कर बैठे स्कूल कालेजों ने देश का सत्यनाश कर दिया है, और दूसरी ओर उसी श्वास में मंदिर के बदले स्कूल-कालेजों में धन व्यय करने की प्रेरणा भी देते है। ऐसा लगता है कि इतने सत्यानाश से हम संतुष्ट न हो पाये हैं। एलोपेथी की चिकित्सा ने जितने रोगों को मिटाया है उससे भी कई अधिक गुना रोगों को जन्म दिया है, एसी शिकायत हम करते हैं तथा दूसरी और इन रोगोत्पादक फेक्ट्रियों को खड़ा करने में हम जनसेवा मानते हैं । इन अंतर - विरोधों को कौन सामने लायेगा? .. गुजरात के शिक्षा जगत की प्रसिद्ध शिक्षाविद श्रीमती इंदुमती बहन काटदरे से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। स. समय उसे एक सरस चर्चा हुई थी। उनके ही शब्दों में -"अधिकतर लोग शिकायत करते हैं कि आजकल स्कूलों व कॉलेजों में अनुशासन नहीं है, भ्रष्टाचार और अनुचित रीतियाँ प्रचलित हैं । शिक्षक गंभीरता से पढ़ाते नहीं है और विद्यार्थी पढ़ते नहीं है"। मुझे तो प्रतीत होता है कि यही श्रेयस्कर है। कोई निष्ठापूर्वक पढ़ता नहीं है और न कोई पढ़ाता है । यदि पूर्णतया सड़ी-गली शिक्षा को सब गंभीरता से पढ़ते और पढ़ाते होते तो देश बहुत पहले ही रसातल में चला गया होता। करोड़ों रुपयों के व्यय से संगमरमर से बनी एलोपेथिक अस्पताल का निर्माण प्रभुसेवा है या मानव की सबसे बड़ी कुसेवा है, उसका निर्णय करने के लिये कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित एक अंग्रेजी पुस्तक पढ़ लेना पर्याप्त होगा। इस लेखक ने संपूर्ण एलोपेथी पद्धति का सारांश इस पुस्तक के टाईटल में ही समाहित कर दिया है । इस पुस्तक का शीर्षक है - "डुइंग बेटर एंड फीलिंग वर्स" | मैकॉल की शिक्षा और एलोपेथी की चिकित्सा के सौ-डेढ़ सौ वर्षों का विश्लेषण, विशाल हानि का हिसाब प्रस्तुत करता है । लौंग की लकडी को धीरे-धीरे थपथपाने से श्रेयस्कर तो उसे निःसंकोच कचरे ‘की टोकरी में ही फेंक देना चाहिये । कचरे की टोकरी-के योग्य कॉलेज-अस्पतालों में देव-द्रव्य के उपयोग का प्रश्न ही नहीं उठता । विचारक तो यहां तक कहते हैं कि ऐसी घातक शिक्षा व चिकित्सा पद्धति के प्रोत्साहन के लिये धन का व्यय करने के बदले उसे अरब सागर में विसर्जित करना श्रेष्ठ हैं | धन व्यर्थ ही जायेगा, विवाद व हानि तो पैदा नहीं करेगा। गाँव-गाँव में साक्षरता अभियान चलाते भोले भामा साक्षरता को शिक्षा के साथ इक्वेट करते हैं। वे मानते हैं कि अक्षर ज्ञान कर लेने मात्र से व्यक्ति साक्षर हो जाता है। उन्हें ज्ञात नहीं है कि “एज्युकेशन इज मच मोर धेन लिटरेसी" पंटागोन में बैठे-बैठे ही पृथ्वी को सात सौ बार मानवरहित बनाया जा सके, ऐसे शस्त्रों की निरन्तर खोज कर रहे वैज्ञानिक हावर्ड के पी.एच.डी. तो हो सकते है, किंतु वे साक्षर नहीं अपितु राक्षस कहे जा सकते हैं । समग्र जीवसृष्टि के साथ (45) Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www ainelibrary.org

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