Book Title: Mahavrato Ka Bhag Darshan Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 4
________________ - ईर्या समिति से गमन करते हुए मुनि के पैर के नीचे भी कभी कभार कीट प्रादि क्षुद्र प्राणी दब कर मर जाते हैं, उनकी हिंसा हो जाती है । — परन्तु उक्त द्रव्य हिंसा से उस मुनि को सिद्धान्त में सूक्ष्म मात्र भी कर्म-बन्ध नहीं बताया गया है, क्योंकि मुनि श्रप्रमत्त है, अन्तरंग में जागृत है, और सिद्धान्त में हिंसा तो प्रमादरूप में निर्दिष्ट है । २. 'या पुनर्भावतो न द्रव्यतः ' सेयम्--जहा के वि पुरिसे मंद-मंदपगासप्पदेसे संठियं ईसिलिकायं रज्जुपासित्ता, एस श्रहि ति तव्वहपरिणामए निकड्ढियासिपत्ते दुयं दु छिदिज्जा । एसा भावप्रो हिंसा, न दव्वो । 'भाव से हिंसा है, किन्तु द्रव्य से नहीं है' - यह द्वितीय भंग है। जैसे कि कोई व्यक्ति कुछ अधिक मन्द प्रकाश वाले प्रदेश में वक्र रूप से आडी-तिरछी पड़ी हुई रस्सी को भ्रम से सर्प समझ लेता है और तलवार लेकर सहसा उसके दो खण्ड (टुकड़े) कर डालता है । स्पष्ट ही यहाँ सर्परूप प्राणी की हिंसा तो नहीं हुई है, किन्तु सर्प मारने का भाव होने से भाव - हिंसा है। अतः प्रस्तुत भंग में प्राणातिपात रूप हिंसा का दोष होने से कर्म-बन्ध है । ३. द्रव्यतो भावतश्चेति ।' जहा केई पुरिसे मियवह-परिणाम-परिणए, मियं पासिता प्रायनाइट्टियकोदंडजीये सरं णिसिरिज्जा। से य मिए तेण सरेण विद्धे मए सिया । mar oar हिंसा, भावश्रो वि । 'द्रव्य से भी हिंसा और भाव से भी यह तृतीय भंग है । द्रव्य और भाव, दोनों से हिंसा होने की स्थिति संकल्पपूर्वक किसी प्राणी की हिंसा कर देने में है । जैसे कि कोई शिकारी मृग को मारने के भाव से कान तक धनुष की प्रत्यंचा को जोर से खींच कर लक्ष्य -- सन्धानपूर्वक बाण से मृग को बींधता है, और मृग मर भी जाता है । यहाँ भारने के भाव से मृग को मारा गया है, अतः यह द्रव्य हिंसा भी है, और भाव- हिंसा भी । प्रस्तुत उभयमुखी हिंसा भी कर्म-बन्ध की हेतु है । क्योंकि इसमें द्रव्य के साथ हिंसा का भाव स्पष्टतः संलग्न है, जो 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणम्' के अनुसार कर्म-बन्ध हेतुक हिंसा की परिभाषा में आता है। ४. 'चरमभंगस्तु शून्यः' - चतुर्थ भंग शब्दोल्लेख रूप में है-न द्रव्य से हिंसा और न भाव से हिंसा ।' यह भंग शून्य है । क्योंकि इस रूप में हिंसा की क्रियात्मक एवं भावात्मक कहीं कोई स्थिति ही नहीं होती है। हिंसा के मूल में दो ही रूप ह--द्रव्य और भाव । तीसरा भंग दोनों के मिलन का है । अतः दोनों के निषेध में हिंसा का कोई रूप ही नहीं बनता । अतः चतुर्थ भंग अर्थशून्य है, केवल शब्द मात्र है । असत्य सत्य से सम्बन्धित चतुर्भ गो : भइ - १. Treat fair faसुज्जुप्रो - दूस्रो तए पसुमिगाइणो दिट्ठ' त्ति । सो दाए दिट्ठा वि भइ -- 'ण दिट्ठ' त्ति । एस दव्वओो मुसावायो, नो भावश्रो । कोई व्यक्ति वन-प्रदेश आदि में स्थित मुनि से पूछता है कि 'इधर से मृग आदि पशु गए हैं क्या ?' मुनि ने देखे हैं, फिर भी प्राणिरक्षारूप दया के भाव से कहता है कि पन्ना समिक्ख धम्मं २५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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