Book Title: Mahavrato Ka Bhag Darshan Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 2
________________ परिग्रहेभ्यो विरतिर्वतम्-तत्त्वार्थसूत्र, ७, १। श्रावक-श्राविका और साधु-साध्वी की साधना के रूप में, ये ही क्रमशः अणुव्रत तथा महाव्रत के रूप में प्रसिद्ध हैं। अपनी जीवन भूमिका के अनुरूप श्रावक के लिए, हिंसा आदि की अमुक अंश में मर्यादाबद्ध आंशिक निवृत्तिरूप अहिंसा आदि अणुव्रत हैं और सक्था सर्वांश में हिंसा आदि की निवृत्ति रूप अहिंसा ग्रादि साधु के लिए महावत हैं। इन्हीं का देश-विरत तथा सर्व-विरत के रूप में भी उल्लेख है। यद्यपि साधु के लिए मन, वचन और काय से कृत, कारित और अनुमोदित रूप में हिंसा आदि की महाव्रती प्रतिज्ञासूत्र में सर्वविरतिता वर्णित है, परन्तु जीवन-यात्रा में ऐसी सर्वथा विरति घटित होती नहीं है, यह प्रत्यक्ष में परिलक्षित है। उक्त विरोधाभास का समाधान भाव-पक्ष में है। सर्वथा निवृत्ति की भावना है, तदर्थ यत्नशीलता भी है, फिर भी परिस्थिति विशेष में यथाप्रसंग अतिक्रमण हो ही जाता है, तो उसकी प्रतिक्रमण प्रादि के द्वारा शद्धि कर ली जाती है। अतः सर्वविरति का स्वरूप जागत यत्नशीलता में है, और भाव में है। और, उक्त स्थिति को यथायोग्य समझने के लिए प्रस्तुत में द्रव्य और भाव की चतुर्भगी का स्पष्ट बोध अपेक्षित है। अहिंसा आदि की साधना के लिए सर्व प्रथम हिंसा आदि को स्पष्टतया समझ लेना आवश्यक है। क्योंकि हिंसा की निवृत्ति प्रादि ही तो अहिंसा आदि है। अत: जिनकी निवृत्ति करनी है, जिनसे अपनी आत्म-चेतना को मुक्त रखना है, मुक्त रखने की यत्नशीलता--साधना करना है, उनका यदि सम्यक्-बोध नहीं है, तो फिर अज्ञानता की अन्धस्थिति में निवृत्ति का क्या अर्थ रह पाता है ? इसलिए दशवकालिक सूत्र के चतुर्थ अध्ययन में भगवद् वचन है—अन्नाणी कि काही, किंवा नाही सेय-पावगं।" जीवन के दो पक्ष हैं-अन्तरंग और बहिरंग । हिंसा आदि कब, किस स्थिति में, किस रूप में आश्रव रूप होते हैं, और कब आश्रव' रूप न होकर अनाश्रव अर्थात संवर रूप होते हैं, यह व्यक्ति के अन्तरंग और बहिरंग स्थिति पर आधारित है। अन्तरंग भाव पक्ष है, और बहिरंग द्रव्य पक्ष । हिंसा और अहिंसा आदि मूल में व्यक्ति का अपना एक भाव, एक विचार, एक संकल्प होता है। और, उसी के आधार पर आश्रय एवं बन्ध की तथा संवर और निर्जरा की स्थिति है। बहिरंग रूप अकेले द्रव्य का उक्त स्थिति से कोई सम्बन्ध नहीं है। न वह पाश्रव, बन्ध का हेतु है और न संवर, निर्जरा का-'असिद्धं बहिरंगमन्तरंगे।' तत्त्वद्रष्टा पागम मर्मज्ञ जैनाचार्यों ने प्रस्तुत सन्दर्भ में द्रव्य और भाव की जो चतुभंगी प्ररूपित की है, उस पर से हिंसा-अहिंसा आदि के स्वरूप का स्पष्टतः परिबोध हो जाता है। और इस परिबोध के आधार पर अहिंसा आदि व्रतों के साधना-पक्ष की अनेक गूढ़ ग्रन्थियों तथा भ्रान्तियों का निराकरण हो जाता है। प्रतिपाद्य की भूमिका लंबी न करूं। आइए, चचित बोध के लिए महान् आचार सूत्र दशवकालिक सूत्र की नियुक्ति, चूर्णि, टीका, दीपिका आदि के प्रकाश में चिन्तनयात्रा शुरू करें। दशवकालिक सूत्र पर चतुर्दशपूर्वविद, पंचम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु की प्राकृतगाथाबद्ध नियुक्ति है, जो उक्त सूत्र की पहली व्याख्या है। यह श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाण के १७० वर्ष के आस-पास शब्दबद्ध हुई है। प्राचार्य भद्रबाहु की गरिमा जैनपरम्परा के प्राचीन तथा अर्वाचीन सभी पक्षों में आदत है। उनकी प्रामाणिकता सन्देह से परे है । दशवकालिक की अपनी नियुक्ति में, जिसमें नियुक्ति पर का भाष्य भी अन्तगभित है, अहिंसा के द्रव्य-भाव से सम्बन्धित चार रूप निर्धारित किए हैं, इसी के आधार पर उत्तरकालीन जिनदास आदि प्राचार्यों ने सत्य, अस्तेय आदि पर भी द्रव्य-भाव' की चतुर्भगी घटित की है। __प्राचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति का द्रव्य-भाव से सम्बधित संकेतपरक पाठ इस प्रकार है २५० पन्ना समिक्खए धम्म www.jainelibrary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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