Book Title: Mahavrato Ka Bhag Darshan Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 5
________________ 'नहीं, मैंने नहीं देखे हैं।' यह द्रव्य रूप से शाब्दिक मृषावाद अर्थात असत्य है, किन्तु भाव से नहीं है। क्योंकि मुनि अपने किसी वैयक्तिक स्वार्थ प्रादि की दृष्टि से असत्य के लिए असत्य नहीं बोल रहा है। प्रस्तुत प्रसंग में प्राणि दया की दृष्टि से केवल शब्द रूप में ही असत्य है, भाव में नहीं। अतः यह द्रव्य असत्य है, भाव असत्य नहीं। भाव असत्य न होने से यह बाह्य असत्य होते हुए भी अन्तरंग में हित होने से सत्य की कोटि में आता है। इसके फलस्वरूप मुनि का मृषावाद-विरमणरूप सत्य महावत खण्डित नहीं होता है। आचारांग सूत्र के द्वितीय स्कन्ध में प्रस्तुत सन्दर्भ से ही सम्बन्धित “जाणं वा णो जाणं ति वदेज्जा" का जो भाव-बोध है, वहीं प्रागम-मर्मज्ञ चूर्णिकार तथा टीकाकार प्राचार्यों के शब्दों में मुखरित हुआ है। प्राचारांग सूत्र में स्पष्ट कथन है कि मुनि प्राणि-दया के हतु मृगादि को जानता हुआ भी कह दे कि 'नो जानं'-मैं नहीं जानता, मुझे नहीं मालूम, मैंने नहीं देखे। जैन-धर्म भाव-प्रधान धर्म है। यहाँ बन्ध और मोक्ष व्यक्ति की भावधारा पर ही आधारित है। अतः प्राचारांग आदि के व्रत-साधना सम्बन्धी उक्त विश्लषण भावना की गुणवत्ता के स्पष्टतः उद्घोषक है। आगमों के भावों को साम्प्रदायिक मोह से मुक्त हो कर ही देखना, परखना, समझना एवं समझाना चाहिए। अस्तु, साम्प्रदायिक मान्यताओं एवं त्याग-वैराग्य की उत्कृष्टता के अहम् में उलझे महानुभावों से नम्र निवेदन है कि कृपया प्राचारांग के उक्त मूल पाठ का अर्थविपर्यास न करें, जैसा कि प्रायः वे आजकल कर रहे हैं। विद्वानों की दष्टि में उनकी यह व्यर्थ की उपहासास्पद चेष्टा है। उन्हें पता होना चाहिए, इस प्रकार के शास्त्र एवं परम्परा के विरुद्ध अनर्गल एवं असत्य अर्थ-विपर्यास आगम-भक्त प्राचीन बहुश्रुत प्राचार्यों के प्रति स्पष्ट ही अवहेलना की निकृष्टतर अपभ्राजना के द्योतक हैं। नायाधम्म कहानो---ज्ञातासूत्र आदि में श्रमण भगवान महावीर के द्वारा भव्य जीवों के प्रतिबोध के हेतु अनेक कल्पित कथाएँ कहीं गई हैं, वे भी यथार्थ में घटित न होने के कारण शब्द रूप में तो द्रव्य असत्य है, किन्तु आध्यात्मिक भाव की प्रतिबोधकता में हेतु होने से भाव सत्य है। उत्तरकालीन आचार्यों के भी इसी प्रकार के अनेक कल्पित बोध-वचन सत्य से सम्बन्धित उक्त प्रथम भंग की कोटि में आते हैं। २. दन्वनो। अवरो 'मुसं भणीहामि' ति परिणो, सहसा सच्चं भणइ । एस भावनो न एक व्यक्ति अपने स्वार्थ आदि की पूर्ति के हेतु दूसरे को धोखा देने के लिए असत्य बोलने का विचार करता है, किन्तु हड़बड़ी में उसके मुख से सहसा सच्ची बात बोल दी जाती है। अतः यह भाव से असत्य है, द्रव्य से नहीं। यह द्वितीय भंग कर्म-बन्ध का हेतु है। क्योंकि मुख से शब्द रूप में भले ही सत्य बोला गया हो, किन्तु मन में तो असत्य बोलने के, धोखा देने के भाव हैं, अतः कर्म-बन्ध का होना सुनिश्चित है। ३. अवरो मुस भणीहामि त्ति परिणो मुसं चेव भणइ। एस दव्वनो वि भावनो वि। तृतीय भंग द्रव्य और भाव का मिश्रित भंग है। एक व्यक्ति असत्य बोलने का विचार करता है, और तदनसार असत्य बोल भी देता है, यह द्रव्य और भाव' अर्थात मन और वाणी दोनों से असत्य है। उक्त भंग में असत्य का भाव होने से यह भी असत्य आश्रवजन्य कर्म-बन्ध का हेतु है। महाव्रतों का भंग-दर्शन २५३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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