Book Title: Mahavir ki Vani ka Mangalmay Krantikari Swaroop Author(s): Mahavir Sharan Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 4
________________ आज के मनुष्य ने प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था एक द्रव्य तथा उसके गुणों एवं पर्यायों का अन्य द्रव्य को आदर्श माना है। हमारा धर्म भी प्रजातंत्रात्मक या उसके गुणों और पर्यायों के साथ किसी प्रकार का शासन पद्धति के अनुरूप होना चाहिए। कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति इस दृष्टि से सब आत्मायें स्वतंत्र हैं: भिन्न-भिन्न को समान अधिकार प्राप्त होते हैं ! इस पद्धति के स्व- हैं, पर वे एक-सी अवश्य हैं। इस कारण उन्होंने कहा बता एवं समानता दो बहत बड़े जीवन-मूल्य हैं। इसके कि सब आत्मायें समान हैं, पर एक नहीं। समानान्तर दर्शन के धरातल पर भी हमें व्यक्ति मात्र स्वतंत्रता एवं समानता दोनों की इस प्रकार की की समता एवं स्वतंत्रता का उद्घोष करना होगा। परस्परावलम्बित व्याख्या अन्य किसी दर्शन में दुर्लभ है। आज ऐसे दर्शन की आवश्यकता है जो समाज के महावीर ने उस मार्ग का प्रवर्तन किया जिससे सदस्यों में परस्पर सामाजिक सौहार्द एव बंधुत्व का गाना । साहाद एव बघुत्व का व्यक्ति-मात्र अपने ही बल पर उच्चतम विकास कर भ वातावरण निर्मित कर सके । यदि यह न हो सका तो सकता है। प्रत्येक आत्मा अपने बल पर परमात्मा बन किसी भी प्रकार की व्यवस्था एवं शासन पद्धति से । सकती है। उन्होंने प्रतिपादित किया कि जीव अपने ही समाज में शान्ति स्थापित नहीं हो पायेगी। कारण से संसारी बना है और अपने ही कारण से इस दृष्टि से हमें यह विचार करना है कि भगवान मुक्त होगा। व्यवहार से बंध और मोक्ष के हेतु अन्य महावीर ने ढाई हजार वर्ष पूर्व अनेकान्तवादी चिन्तन पदार्थ को जानना चाहिए किन्तु निश्चय से यह जीव पर आधारित अपरिग्रहवाद एवं अहिंसावाद से संयुक्त _स्वयं बंध का हेतु है और स्वयं मोक्ष का हेतु है। आत्मा जिस ज्योति को जगाया था उसका आलोक हमारे आज अपने स्वयं के उपाजित कर्मों से ही वंधती है। आत्मा के अंधकार को दूर कर सकता है या नहीं। का दुख स्वकृत है किन्तु व्यक्ति अपने ही प्रयास से उच्चतम विकास भी कर सकता है क्योंकि आत्मा परिवर्तित युग के समयानुकल धर्म एवं दर्शन के सर्वकर्मों का नाश कर सिद्धलोक में सिद्धपद प्राप्त करने संदर्भ में जब हम जैन दर्शन एवं भगवान महावीर की की क्षमता रखती है। वाणी पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि जैन दर्शन इसी कारण भगवान ने उद्घोष किया कि पुरुष समाज के प्रत्येक मानव के लिए समान अधिकार जुटाता है । सामाजिक समता एवं एकता की दृष्टि से स्वय हा अपना मित्र है 'पुरिसा! तुममेव तमं मित्तं ।' उन्होंने जीव मात्र को आस्था एवं विश्वास का अमोघ श्रमण परम्परा का अप्रतिम महत्व है। इस परम्परा ' मंत्र दिया, कि बंधन से मुक्त होना तुम्हारे ही हाथ में मानव को मानव के रूप में देखा गया है; वर्ण, वादों, में है। सम्प्रदायों आदि का लेबिल चिपकाकर मानव को बांटनेवाले दर्शन के रूप में नहीं । मानव महिमा का किन्तु इसके लिए आत्मार्थी साधक को जितेन्द्रिय जितना जोरदार समर्थन जैन दर्शन में हुआ है वह होना पड़ता है। समस्त प्रकार के परिग्रहों को छोडना अनपम है। भगवान महावीर ने आत्मा की स्वतंत्रता पड़ता है; रागद्वेष रहित होना पड़ता है। सत्य के की प्रजातंत्रात्मक उदघोषणा की। उन्होंने कहा कि साधक को बार-बार बाहरी प्रलोभन अभिभूत करते समस्त आत्मायें स्वतंत्र हैं। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। रहते हैं। साधना का पथ बार-बार विलासिता की उसके गुण और पर्याय भी स्वतंत्र हैं । विवक्षित किसी रंगीन चादर ओढ़ना चाहता है । धर्म की आड़ में अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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