Book Title: Mahavir ki Vani ka Mangalmay Krantikari Swaroop Author(s): Mahavir Sharan Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 3
________________ जीवों को दुःख देना मोक्ष का मार्ग नहीं है। धर्मों के जगत की अवहेलना हुई थी । आज के वैज्ञानिक युग आपसी भेदों के विरुद्ध आवाज उठायी तथा धर्म को में बौद्धिकता का अतिरेक व्यक्ति के अर्न्तगत की व्यापक आरोपित सीमाओं के घेरे से बाहर लाकर खड़ा किया सीमाओं को संकीर्ण करने एवं उसके बहिर्जगत की तथा कहा कि धर्म के पवित्र अनुष्ठान से आत्मा का सीमाओं को प्रसारित करने में यत्नशील है। आज के शुद्धिकरण होता है । धर्म न कहीं गाँव में होता है ओर धार्मिक एवं दार्शनिक मनीषियों को वह मार्ग खोजना न कहीं जंगल में बल्कि वह तो अन्तरात्मा में होता है जो मानव की बहिर्मुखता का भी विकास कर सके । है। उन्होंने धर्म साधनों का निर्णय विवेक और सम्यग् पारलौकिक चिन्तन व्यक्ति के आत्म विकास में चाहे ज्ञान के आधार पर करने की बात कही । जीवात्मा कितना ही सहायक हो किन्तु उससे सामाजिक सम्बन्धों ही ब्रह्म है यह मह वीर का अत्यन्त क्रान्तिकारी विचार की सम्बद्धता, समरसता एवं समस्याओं के समाधान में था जिसके आधार पर वे यह प्रतिपादित कर सके कि अधिक सहायता नहीं मिलती है । आज के भौतिकबाह्य जगत की कल्पित शक्तियों के पूजन से नहीं अपितु बादी युग में केवल वैराग्य से काम चलनेवाला नहीं अन्तरात्मा के दर्शन एवं परिष्कार से ही कल्याण सम्भव है। आज हमें मानव की भौतिकवादी दृष्टि को सीमित है । उनका स्पष्ट मत था कि वेदों के पढ़ने मात्र से करना होगा; भोतिक स्वार्थपरक इच्छाओं को संयमित उद्वार सम्भव नहीं है। उन्होंने व्यक्ति को सचेत किया करना होगा, मन की कामनाओं में त्याग का रंग कि यदि हृदय में परमाणु मात्र भी राग द्वेष है तो मिलाना होगा। आज मानव को एक और जहाँ इस समस्त आगमों का निष्णात होते हुए भी आत्मा को प्रकार का दर्शन प्रभावित नहीं कर सकता कि केवल नहीं जान सकता । उन्होंने आत्मा द्वारा आत्मा को ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है वहाँ दूसरी और भौतिक जानने की बात कही। तत्वों की ही सत्ता को सत्य माननेवाला दृष्टिकोण जीवन के उन्नयन में सहायक नहीं हो सकता । आज इस प्रकार महावीर की वाणी ने व्यक्ति की दृष्टि भौतिकता और आध्यात्मिकता के समत्व की आवश्यकता को व्यापक बनाया; चितन के लिए सतत जागरूक है। इसके लिए धर्म एवं दर्शन की वर्तमान सामाजिक भूमिका प्रदान की; आत्म साधना के निगढ़तम रहस्य संदर्भो के अनुरूप एवं भावी मानवीय चेतना के निर्णाद्वारों को वैज्ञानिक ढ़ग से आत्म-बल के द्वारा खोलने यक रूप में व्याख्या करनी है । इस संदर्भ में आध्याकी प्रक्रिया बतलायी तथा सहज भाव से सृष्टि के कणकण के प्रति राग-द्वेष की सीमाओं के परे करुणा एवं त्मिक साधना के ऋषियों एवं मुनियों की धार्मिक अपनत्व की भावभूमि प्रदान की। साधना एवं गृहस्थ सामाजिक व्यक्तियों की धार्मिक साधना के अलग-अलग स्तरों को परिभाषित करना धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो आवश्यक है। प्राणी मात्र को प्रभावित कर सके एवं उसे अपने ही प्रयत्नों के बल पर विकास करने का मार्ग दिखा सके। धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो ऐसा दर्शन नहीं होना चाहिए जो आदमी-आदमी के बीच वैज्ञानिक हो । वैज्ञानिकों की प्रतिपत्तिकाओं को खोजने दीवारें खड़ी करके चले धर्म को पारलौकिक एवं लौकिक का मार्ग एवं धार्मिक मनीषियों एवं दार्शनिक तत्वदोनों स्तरों पर मानव की समस्याओं के समाधान के चिन्तकों की खोज का मार्ग अलग-अलग हो सकता है, लिए तत्पर होना होगा। प्राचीन दर्शन ने केवल किन्तु उनके सिद्धान्तों एवं मूलभूत प्रत्ययों में विरोध अध्यात्म साधना पर बल दिया था और इस लौकिक नहीं होना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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