Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर की वाणी का मंगलमरा क्रांतिकारी स्वरूप
भगवान महावीर ने जिस धर्म एवं दशन का प्रचार प्रसार किया; जिस सत्य की सुस्पष्ट व्याख्या की, जिन दार्शनिक प्रतिपतिकाओं को सुव्यवस्थित ढ़ंग से अभिव्यक्त किया, उनके सूत्र यद्यपि भारतीय प्राक्-वैदिक युग से ही पोषित एवं विकसित होते आये हैं तथापि महावीर ने श्रमण-दर्शन की निग्रन्थ परम्परा में तेईसवें तीर्थ कर तथा ऐतिहासिक व्यक्तित्व पार्श्वनाथ के बा यम धर्म के स्थान पर "पंच महाव्रत" का उपदेश देकर तथा आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ
एवं चरित्र से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बनाकर भारतीय मनीषा को नया मोड़ दिया । उन्होंने धर्म के उत्कृष्ट मंगलमय स्वरूप की व्याख्या ही नहीं की, "धम्मो मंगलमुविकटठं" कहकर धर्म को मंगलमय साधना का पर्याय बना दिया । उनका जीवन आध्या
डा० महावीर शरण जंन
त्मिक चिंतन मनन एवं संयमी जीवन का साक्षात्कार है; निष्कर्मदर्शी के निष्कर्म आत्मा को देखने का दर्पण है; आत्मा को आत्मसाधना से पहचानने का मापदण्ड है: तप द्वारा कर्मों का क्षय करके आत्म स्वभाव में रमण करने की प्रक्रिया है तथा सबसे बड़ी बात यह कि किसी के आगे झुककर अनुग्रह की वैशाखियों के द्वारा आगे बढ़ने की पद्धति नहीं प्रत्युत अपनी ही शक्ति एवं साधना के बल पर जीवात्मा के परमात्मा बनने की वैज्ञानिक प्रयोगशाला है ।
भगवान महावीर के युग में भौतिकवादी एव संशयमूलक जीवन दर्शन के मतानुयायी चिन्तकों ने समस्त धार्मिक मान्यताओं, चिर संचित आस्था एवं विश्वास के प्रति प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया था। पूरणकस्सप मक्खल गोसाल, अजितकेसकम्बलि, पकुध
४३
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
कच्चायन, संजय बैलटि ठपुत्र आदि के विचारों को प्रति श्रद्धा एवं अनन्यभाव के साथ “अनुराग" एवं पढ़ने पर हमको आभास हो जाता है कि उस युग के "समपंण" कर संतोष पा लेता था। जनमानस को संशय, त्रास, अविश्वास, अनास्था, प्रश्ना
आज का व्यक्ति स्वतन्त्र होने के लिए अभिशापित कूलता आदि वृत्तियों ने किस सीमा तक आबद्ध कर
है। आज व्यक्ति परावलम्बी होकर नहीं, स्वतन्त्र लिया था। ये चिन्तक जीवन में नैतिक एवं आचार
निर्णयों के क्रियान्वयन के द्वारा विकास करना चाहता मूलक सिद्धान्तों की अवहेलना करने एवं उनका तिर
है। अन्धी आस्तिकता एवं भाग्यबाद के सहारे जीना स्कार करने पर बल दे रहे थे। मानवीय सौहार्द एवं
नहीं चाहता अपितु इसी जीवन में साधनों का भोग कर्मवाद के स्थान पर घोर भोगवादी, अक्रियावादी
करना चाहता है। समाज से अपनी सत्ता की स्वीकृति एवं उच्छेदवादी वृत्तियाँ पनप रही थी।
तथा अपने अस्तित्व के लिए साधनों की मांग करता है इन्हीं परिस्थितियों में भगवान महावीर ने प्राणी
तथा इसके अभाव में सम्पूर्ण व्यवस्था पर हथौड़ा मात्र के कल्याण के लिए, अपने ही प्रयत्नों द्वारा उच्च
चलाकर उसे नष्ट भ्रष्ट कर देना चाहता है । तम विकास कर सकने का आस्थापूर्ण मार्ग प्रशस्त कर
मानवीय समस्याओं के समाधान के लिए जब हम अनेकांतवादी जीवन दृष्टि पर आधारित, स्वाद्वाद्वादी
उद्यत होते हैं तो हमारा ध्यान धर्म को और जाता है। कथन प्रणाली द्वारा बहुधर्मी एवं बहुगुणी वस्तु को
इसका कारण यह है कि धर्म ही ऐसा तत्व है जो व्यक्ति प्रत्येक कोण, दृष्टि एव संभावनाओं द्वारा उनके बास्त
की असीम कामनाओं को सीमित करता है तथा उसकी विक रूप में जान पाने एवं पहचान पाने का मार्ग
दृष्टि को व्यापक बनाता है। इस परिप्रेक्ष्य में हमें यह बतलाकर सामाजिक जीवन के लिए अपरिग्रहवाद आदि
जान लेना चाहिए कि रूढ़िगत धर्म के प्रति आज का का संदेश दिया।
मानव किंचित भी विश्वास जुटाने में असमर्थ है। शास्त्रों
में यह बात कही गयी है कि केवल इसी कारण आज आज भी भौतिक विज्ञान की चरम उन्नति मानवीय
का मानव एवं विशेष रूप से बौद्धिक समुदाय एतं युवक चेतना को जिस स्तर पर ले गयी है वहाँ उसने हमारी
उसे मानने के लिए तैयार नहीं है। समस्त मान्यताओं के सामने प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया है। समाज में परस्पर घणा एवं अविश्वास तथा आज वही धर्म एवं दर्शन हमारी समस्याओं का तथा व्यक्तिगत जीव में मानसिक तनाव एवं अशान्ति समाधान कर सकता है जो उन्मक्त दृष्टि से विचार के कारण विचित्र स्थिति उत्पन्न होती जा रही है। करने की प्रेरणा दे सके। भगवान महावीर ने मानवीय
एवं वैज्ञानिक सत्यान्वेषण में अनवरत प्रवृत्त श्रमण आज के और पहले के व्यक्ति और उसके चिन्तन परम्परा के धार्मिक सूत्रों के सहारे भटके हुए मानव में अन्तर भी है । सम्पूर्ण भौतिक साधनों एवं जीवन की को नवीन दिशा एवं ज्योति प्रदान की। बाहरी प्रदर्शन अनिवार्य बस्तुओं से वंचित होने पर भी पहले का व्यक्ति एवं दिखावे की प्रवृत्तियों पर प्रहार किया। निर्भय समाज से लड़ने की बात नहीं सोचता था; भाग्यवाद होकर घोषणा की कि प्रात: स्नानादि कर लेने से मोक्ष एवं नियतिवाद के सहारे जीवन को काट देता था। नहीं होता; जो प्रातः संध्या जल स्नान कर लेने से अपने वर्तमान जीवन की सारी मुसीबतों का कारण मुक्ति बतलाते हैं वे अज्ञानी हैं, बहुत से मुक्ति बतलाने विगत जीवन के कर्मों को मान लेता था। अथवा वाले भी अज्ञानी हैं। बलि देनेवालों के काले कारअपने भाग्य का विधाता परमात्मा" को मानकर उसके नामों को उजागर करते हुए उन्होंने घोषणा की कि
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवों को दुःख देना मोक्ष का मार्ग नहीं है। धर्मों के जगत की अवहेलना हुई थी । आज के वैज्ञानिक युग आपसी भेदों के विरुद्ध आवाज उठायी तथा धर्म को में बौद्धिकता का अतिरेक व्यक्ति के अर्न्तगत की व्यापक आरोपित सीमाओं के घेरे से बाहर लाकर खड़ा किया सीमाओं को संकीर्ण करने एवं उसके बहिर्जगत की तथा कहा कि धर्म के पवित्र अनुष्ठान से आत्मा का सीमाओं को प्रसारित करने में यत्नशील है। आज के शुद्धिकरण होता है । धर्म न कहीं गाँव में होता है ओर धार्मिक एवं दार्शनिक मनीषियों को वह मार्ग खोजना न कहीं जंगल में बल्कि वह तो अन्तरात्मा में होता है जो मानव की बहिर्मुखता का भी विकास कर सके । है। उन्होंने धर्म साधनों का निर्णय विवेक और सम्यग् पारलौकिक चिन्तन व्यक्ति के आत्म विकास में चाहे ज्ञान के आधार पर करने की बात कही । जीवात्मा कितना ही सहायक हो किन्तु उससे सामाजिक सम्बन्धों ही ब्रह्म है यह मह वीर का अत्यन्त क्रान्तिकारी विचार की सम्बद्धता, समरसता एवं समस्याओं के समाधान में था जिसके आधार पर वे यह प्रतिपादित कर सके कि अधिक सहायता नहीं मिलती है । आज के भौतिकबाह्य जगत की कल्पित शक्तियों के पूजन से नहीं अपितु बादी युग में केवल वैराग्य से काम चलनेवाला नहीं अन्तरात्मा के दर्शन एवं परिष्कार से ही कल्याण सम्भव है। आज हमें मानव की भौतिकवादी दृष्टि को सीमित है । उनका स्पष्ट मत था कि वेदों के पढ़ने मात्र से करना होगा; भोतिक स्वार्थपरक इच्छाओं को संयमित उद्वार सम्भव नहीं है। उन्होंने व्यक्ति को सचेत किया करना होगा, मन की कामनाओं में त्याग का रंग कि यदि हृदय में परमाणु मात्र भी राग द्वेष है तो मिलाना होगा। आज मानव को एक और जहाँ इस समस्त आगमों का निष्णात होते हुए भी आत्मा को प्रकार का दर्शन प्रभावित नहीं कर सकता कि केवल नहीं जान सकता । उन्होंने आत्मा द्वारा आत्मा को ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है वहाँ दूसरी और भौतिक जानने की बात कही।
तत्वों की ही सत्ता को सत्य माननेवाला दृष्टिकोण
जीवन के उन्नयन में सहायक नहीं हो सकता । आज इस प्रकार महावीर की वाणी ने व्यक्ति की दृष्टि
भौतिकता और आध्यात्मिकता के समत्व की आवश्यकता को व्यापक बनाया; चितन के लिए सतत जागरूक
है। इसके लिए धर्म एवं दर्शन की वर्तमान सामाजिक भूमिका प्रदान की; आत्म साधना के निगढ़तम रहस्य
संदर्भो के अनुरूप एवं भावी मानवीय चेतना के निर्णाद्वारों को वैज्ञानिक ढ़ग से आत्म-बल के द्वारा खोलने
यक रूप में व्याख्या करनी है । इस संदर्भ में आध्याकी प्रक्रिया बतलायी तथा सहज भाव से सृष्टि के कणकण के प्रति राग-द्वेष की सीमाओं के परे करुणा एवं
त्मिक साधना के ऋषियों एवं मुनियों की धार्मिक अपनत्व की भावभूमि प्रदान की।
साधना एवं गृहस्थ सामाजिक व्यक्तियों की धार्मिक
साधना के अलग-अलग स्तरों को परिभाषित करना धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो आवश्यक है। प्राणी मात्र को प्रभावित कर सके एवं उसे अपने ही प्रयत्नों के बल पर विकास करने का मार्ग दिखा सके।
धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो ऐसा दर्शन नहीं होना चाहिए जो आदमी-आदमी के बीच वैज्ञानिक हो । वैज्ञानिकों की प्रतिपत्तिकाओं को खोजने दीवारें खड़ी करके चले धर्म को पारलौकिक एवं लौकिक का मार्ग एवं धार्मिक मनीषियों एवं दार्शनिक तत्वदोनों स्तरों पर मानव की समस्याओं के समाधान के चिन्तकों की खोज का मार्ग अलग-अलग हो सकता है, लिए तत्पर होना होगा। प्राचीन दर्शन ने केवल किन्तु उनके सिद्धान्तों एवं मूलभूत प्रत्ययों में विरोध अध्यात्म साधना पर बल दिया था और इस लौकिक नहीं होना चाहिए।
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
आज के मनुष्य ने प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था एक द्रव्य तथा उसके गुणों एवं पर्यायों का अन्य द्रव्य को आदर्श माना है। हमारा धर्म भी प्रजातंत्रात्मक या उसके गुणों और पर्यायों के साथ किसी प्रकार का शासन पद्धति के अनुरूप होना चाहिए।
कोई सम्बन्ध नहीं है।
प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति इस दृष्टि से सब आत्मायें स्वतंत्र हैं: भिन्न-भिन्न को समान अधिकार प्राप्त होते हैं ! इस पद्धति के स्व- हैं, पर वे एक-सी अवश्य हैं। इस कारण उन्होंने कहा बता एवं समानता दो बहत बड़े जीवन-मूल्य हैं। इसके कि सब आत्मायें समान हैं, पर एक नहीं। समानान्तर दर्शन के धरातल पर भी हमें व्यक्ति मात्र
स्वतंत्रता एवं समानता दोनों की इस प्रकार की की समता एवं स्वतंत्रता का उद्घोष करना होगा।
परस्परावलम्बित व्याख्या अन्य किसी दर्शन में दुर्लभ है। आज ऐसे दर्शन की आवश्यकता है जो समाज के
महावीर ने उस मार्ग का प्रवर्तन किया जिससे सदस्यों में परस्पर सामाजिक सौहार्द एव बंधुत्व का गाना । साहाद एव बघुत्व का व्यक्ति-मात्र अपने ही बल पर उच्चतम विकास कर
भ वातावरण निर्मित कर सके । यदि यह न हो सका तो
सकता है। प्रत्येक आत्मा अपने बल पर परमात्मा बन किसी भी प्रकार की व्यवस्था एवं शासन पद्धति से ।
सकती है। उन्होंने प्रतिपादित किया कि जीव अपने ही समाज में शान्ति स्थापित नहीं हो पायेगी।
कारण से संसारी बना है और अपने ही कारण से इस दृष्टि से हमें यह विचार करना है कि भगवान
मुक्त होगा। व्यवहार से बंध और मोक्ष के हेतु अन्य महावीर ने ढाई हजार वर्ष पूर्व अनेकान्तवादी चिन्तन
पदार्थ को जानना चाहिए किन्तु निश्चय से यह जीव पर आधारित अपरिग्रहवाद एवं अहिंसावाद से संयुक्त
_स्वयं बंध का हेतु है और स्वयं मोक्ष का हेतु है। आत्मा जिस ज्योति को जगाया था उसका आलोक हमारे आज
अपने स्वयं के उपाजित कर्मों से ही वंधती है। आत्मा के अंधकार को दूर कर सकता है या नहीं।
का दुख स्वकृत है किन्तु व्यक्ति अपने ही प्रयास से
उच्चतम विकास भी कर सकता है क्योंकि आत्मा परिवर्तित युग के समयानुकल धर्म एवं दर्शन के सर्वकर्मों का नाश कर सिद्धलोक में सिद्धपद प्राप्त करने संदर्भ में जब हम जैन दर्शन एवं भगवान महावीर की की क्षमता रखती है। वाणी पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि जैन दर्शन
इसी कारण भगवान ने उद्घोष किया कि पुरुष समाज के प्रत्येक मानव के लिए समान अधिकार जुटाता है । सामाजिक समता एवं एकता की दृष्टि से स्वय हा अपना मित्र है 'पुरिसा! तुममेव तमं मित्तं ।'
उन्होंने जीव मात्र को आस्था एवं विश्वास का अमोघ श्रमण परम्परा का अप्रतिम महत्व है। इस परम्परा
' मंत्र दिया, कि बंधन से मुक्त होना तुम्हारे ही हाथ में मानव को मानव के रूप में देखा गया है; वर्ण, वादों,
में है। सम्प्रदायों आदि का लेबिल चिपकाकर मानव को बांटनेवाले दर्शन के रूप में नहीं । मानव महिमा का किन्तु इसके लिए आत्मार्थी साधक को जितेन्द्रिय जितना जोरदार समर्थन जैन दर्शन में हुआ है वह होना पड़ता है। समस्त प्रकार के परिग्रहों को छोडना अनपम है। भगवान महावीर ने आत्मा की स्वतंत्रता पड़ता है; रागद्वेष रहित होना पड़ता है। सत्य के की प्रजातंत्रात्मक उदघोषणा की। उन्होंने कहा कि साधक को बार-बार बाहरी प्रलोभन अभिभूत करते समस्त आत्मायें स्वतंत्र हैं। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। रहते हैं। साधना का पथ बार-बार विलासिता की उसके गुण और पर्याय भी स्वतंत्र हैं । विवक्षित किसी रंगीन चादर ओढ़ना चाहता है । धर्म की आड़ में अपने
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वार्थ की सिद्धि चाहनेवाले दलाल आध्यात्म के सत्य एवं मानसिक विषमताओं का कारण कर्मों का भेद है। को भौतिकवादी व्यवस्थाओं से बार-बार ढंकने का जीवन शरीर से भिन्न एवं चैतन्य का कारण है। जब प्रयास करते हैं। शताब्दी में एकाध व्यक्ति ही ऐसे सर्व कर्मों का क्षय होता है तो प्रत्येक जीव अनन्त ज्ञान, होते हैं जो धर्म के क्षेत्र में व्याप्त- पाखण्ड, कदाचार, अनन्त श्रद्धा एवं अनन्त शक्ति से स्वतः सम्पन्न हो जाता अमानवीयता पर प्रहार कर वास्तविक सत्य का उद्घा- है। महावीर ने व्यक्ति के चरम पुरुषार्थ को ही नहीं टन करते हैं । उपनिषद्कार के युग में भी याज्ञिक धर्म जगाया; प्रज्ञा, विवेक एवं आचरण के बल पर अध्यात्म की विकृतियाँ इतनी उजागर हो गई थीं कि उसे कहना पथ का अनुवर्तन करनेवाले धार्मिक मानव को देवपड़ा कि अमृत तत्व सोने के पात्र से ढंका हआ है। ताओं का भी उपास्य बना विया । उन्होंने कहा कि मध्ययुगीन सतो ने भी धर्म के बाह्याडम्बरों पर चोट अहिंसा, संयम एवं तप रूप धर्म की साधना करनेकी । सन्त नामदेव ने 'पाखण्ड भगति राम नहीं रीझे' वाले साधक को देवता भी नमस्कार करते हैं । कहकर धर्म के तात्विक स्वरूप की ओर ध्यान आकृष्ट किया तो कबीर ने 'जो घर जारे आपना, चले हमारे इसके अतिरत्ति जैन दर्शन में अहिंसावाद पर आधासाथ' का आह्वान कर साधना पथ पर द्विधारहित रित, क्षमा-मैत्री, स्वसंयम तथा परप्राणियों को आत्म संशयहीन मन:स्थिति से कामनाओं का सर्वथा त्याग तुल्य देखने की भावना पर बहुत बल दिया गया है। कर आगे बढ़ने की बात कही। पंडित लोग पढ-पढकर आत्म स्वरूप को पहचानने में अपने को गलाना पड़ता वेद बखानते हैं, किन्तु उसकी सार्थकता क्या है ? जीवन है, ममत्व भाव को त्यागना पड़ता है और उस स्थिति की चरितार्थता तो इसमें है कि आत्मविचार पूर्वक में आत्मा को जानने का अर्थ 'सम्भाव' हो जाना होता समदृष्टि की साधना की जावे और ऐसी साधना के बल । पर ही दादूदयाल यह कहने में समर्थ हो सके कि "काया
आत्मानुसंधान प्रक्रिया में यदि व्यक्ति अपने को अन्तर पाइया, सब देवन को देव ।' उपनिषदों में जिस 'तत्वमार्स' सिद्धान्त का उल्लेख हआ है जैन-दर्शन में
संसार की पूजा-प्रतिष्ठा का अधिकारी मान बैठता है उसी विचारणा की विकसित एव नवरूपायित अभि
तो साधना का दम्भ सारी तपस्या को निष्फल कर देता
है। उसे सदैव संयत, सुव्रत, तपस्वी एवं आत्म-गवेषक व्यक्ति है जहां प्राणी मात्र की स्वतंत्रता, समता एवं स्वावलम्बित स्थिति का दिग्दर्शन कराया गया है।"
रहना चाहिये । सतत् आत्मानुसधान ही साधना है। संसार में अनन्त प्राणी हैं और उनमें से प्रत्येक में
ऐसे साधक के मन में अपनी प्रशंसा सुनने का प्रश्न ही जीवात्मा विद्यमान है। कर्मबंध के फलस्वरूप जीवा
उपस्थित नहीं होता क्योंकि वह सत्कार तथा पूजा
प्रतिष्ठा की इच्छा ही नहीं रखता, नमस्कार तथा त्मायें जीवन की नाना दशाओं, नाना योनियों, नाना
वंदना कराने की भावना ही नहीं रखता 'स्व' को पूरी प्रकार के शरीरों एवं अवस्थाओं में परिलक्षित होती
तरह से त्यागकर आत्म-गवेषक एक को जानकर सब हैं किन्तु सभी में ज्ञानात्मक विकास के द्वारा उच्चतम
___को जान लेता है। एक को जानने का अर्थ ही है सबको विकास की समान शक्तियाँ निहित हैं।
जानना तथा सबको जानना ही एक को जानना है। यह जब सभी प्राणी अपनी मुक्ति चाहते हैं तथा स्वयं दर्शन साधना की परम्परा अविछिन्न रही और इसने के प्रयत्नों से ही उस मार्ग तक पहुँच सकते हैं तथा 'इकाई' को परम परमार्थता, अनन्तता एवं सर्वकोई किसी के मार्ग में तत्वतः बाधक नहीं तब फिर व्यापकता के गुण प्रदान किये। जब शंकराचार्य 'अहं किसी से संघर्ष का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? शारीरिक व्रम्हास्मि' की बात करते हैं या कबीर "मैं सबहिन्ह
४७
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
महि औरनि मैं हैं सब" का स्वर गु जाते हैं तो जैन अपने को बाँधकर ही प्रेम का विस्तार होता है। दर्शन की इस विचारधारा के समीप पहुंच जाते हैं यह कर्मों का बंधन नहीं; संयम का सहज आचरण है। जहाँ जीव ही परमेश्वर हो जाता है। इतना अन्तर मन के कपाट खुल जाते हैं; जगत के समस्त जीवों में अवश्य है कि जहाँ शंकराचार्य एवं कबीर पिण्ड में अपनी आत्मातुल्यता दृष्टिगत होने लगती है; रागब्रह्माण्ड तथा ब्रह्माण्ड में पिण्ड की बात करते हैं वहाँ द्वष की सीमाओं से ऊपर उठकर व्यक्ति सम्यग् ज्ञान, जैन दर्शन में आत्मायें अनन्तानन्त हैं तथा परिणामी सम्यग् दर्शन एवं सम्यग् चारित्र्य से युगों-युगों के कर्मस्वरूप हैं किन्तु चेतना स्वरूप होने के कारण एक बंधन काट फेंकता है। इसी कारण भगवान ने कहा जीवात्मा अपने रूप में रहते हुए भी ज्ञान के अनन्त कि जो ज्ञानी आत्मा इस लोक में छोटे-बड़े सभी पयार्यों का ग्रहण कर सकती है।
प्राणियों को आत्मतुल्य देखते हैं, षटद्रव्यात्मक इस महान
लोक का सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हैं तथा अप्रमत्तव्यक्ति की इच्छायें आकाश के समान अनन्त हैं।
भाव से संयम में रत रहते हैं-वे ही मोक्ष के अधिकारी आत्मार्थी साधक आम्यन्तर एवं वाह्य दोनों परिग्रहों
हैं। इसी कारण आचार्य समन्तभद्र ने भगवान महावीर को त्याग देता है। कामनाओं का अन्त करना ही दुख
के उपदेश को "सर्वोदय तीर्थ" कहा है। का अन्त है
आधुनिक बौद्धिक एवं ताकिक युग में दर्शन ऐसा उस स्थिति में साधक को वस्तु के प्रति ममत्व भाव
होना चाहिये जो आग्रह-रहित दृष्टि से सत्यान्वेषण की नहीं रह जाता। अपने शरीर से भी ममत्व छट
प्रेरणा दे सके। इस दृष्टि से जैन-दर्शन का अनेकान्तजाता है।
वाद व्यक्ति के अहंकार को झकझोरता है; उसकी उसी स्थिति में साधक की दृष्टि विस्तृत से विस्तृत- आत्यन्तिक दृष्टि के सामने प्रश्नवाचक चिन्ह लगाता है। तर होती है और उसे पता चलता है कि स्वरूपत. अनेकान्तवाद यह स्थापना करता है कि प्रत्येक पदार्थ में सभी आत्मायें एक हैं।
विविध गुण एवं धर्म होते हैं। सत्य का सम्पूर्ण
साक्षात्कार सामान्य व्यक्ति द्वारा एकदम सम्भव नहीं इसी कारण भगवान ने समस्त जीवों पर मैत्रीभाव
हो पाता। अपनी सीमित दृष्टि से देखने पर हमें वस्तू रखने एवं समस्त संसार को समभाव से देखने का
के एकांगी गुण-धर्म का ज्ञान होता है। विभिन्न कोणों निर्देश किया। 'श्रमण' की व्याख्या करते हुए उसकी
से देखने पर एक ही वस्तु हमें भिन्न प्रकार की लग सार्थकता समस्त प्राणियों के प्रति समदृष्टि रखने में
सकती है तथा एक स्थान से देखने पर भी विभिन्न बतलायी । समभाव की साधना व्यक्ति को श्रमण
दृष्टाओं की प्रतीतियाँ भिन्न हो सकती हैं। भारत में बनाती है।
जिस क्षण कोई व्यक्ति "सूर्योदय' देख रहा है, संसार भगवान ने कहा कि जाति की कोई विशेषता नहीं; में दूसरे स्थल से उसी क्षण किसी व्यक्ति को 'सूर्यास्त" जाति और कुल से त्राण नहीं होता; प्राणी माव आत्म- के दर्शन होते हैं। व्यक्ति एक ही होता है उससे तुल्य है। इस कारण प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य भाव विभिन्न व्यक्तियों के अलग-अलग प्रकार के सम्बन्ध होते रखो; आत्मतूल्य समझो, सबके प्रति मैत्री भाव रखो, हैं। एक ही वस्तु में परस्पर दो विरुद्ध धर्मों का समस्त संसार को समभाव से देखो । समभाव के महत्व अस्तित्व सम्भव है । इसमें अनिश्चितता की मन:स्थिति का प्रतिपादन उन्होंने यह कहकर किया कि आर्य बनाने की बात नहीं है; वस्तु के सापेक्ष दृष्टि से महापुरुषों ने इसे ही धर्म कहा।
विरोधी गुणों को पहचान पाने की बात है। सार्वभौमिक
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
दृष्टि से देखने पर जो तत्स्वरूप है, एक है, सत्य है, करके अपनी सीमा नहीं मान लेता प्रत्युत समस्त नित्य है, वही सीमित एवं व्यावहारिक दृष्टि से देखने सम्भावित स्थितियों की खोज करने के अनन्तर परम पर अतत्, अनेक, असत्य एवं अनित्य है।
एवं निरपेक्ष सत्य को उद्घाटित करने का प्रयास
करता है । पदार्थ को प्रत्येक कोण से देखने का प्रयास करना चाहिये। हम जो कह रहे हैं-केवल यही सत्य है
स्याद्वादी दर्शन में "स्यात" "निपात" "शायद", यह हमारा आग्रह है। हम जो कह रहे हैं -- यह भी “सम्भवतः", "कदाचित्" का अर्थवाहक न होकर समस्त अपनी दृष्टि से ठीक हो सकता है। हमें यह भी देखना सम्भावित सापेक्ष्य गुणों एवं धर्मों का बोध कराकर चाहिये कि विचार को व्यक्त करने का हमारे एवं दूसरे ध्र व एवं निश्चय तक पहुंच पाने का वाहक है; "ब्यवहार" व्यक्तियों के पास जो साधन है उसकी कितनी सीमाएं में वस्तु में अन्तविरोधी गुणों की प्रतीति कर लेने के हैं । काल की दृष्टि से भाषा के प्रत्येक अवयव में उपरान्त "निश्चय' द्वारा उसको उसके समग्र एवं परिवर्तन होता रहता है। क्षेत्र की दृष्टि से भाषा के अखण्ड रूप में देखने का दर्शन है। हाथी को उसके रूपों में अन्तर होता है। हम जिन शब्दों एवं वाक्यों भिन्न-भिन्न खण्डों से देखने पर जो विरोधी प्रतीतियाँ से संप्रेषण करना चाहते हैं उसकी भी कितनी सीमाएं होती हैं उसके अनन्तर उसको उसके समग्र रूप में हैं । "राधा गाने वाली है" इसका अर्थ दो श्रोता अलग- देखना है। इस प्रकार यह संदेह उत्पन्न करनेवाला अलग लगा सकते हैं। प्रत्येक शब्द भी "वस्तु" को दर्शन न होकर सन्देहों का परीक्षण करने के उपरान्त नहीं किसी वस्तु के भाव को बतलाता है जो वक्ता एवं उनका परिहार कर सकनेवाला दर्शन है। यह दर्शन श्रोता दोनों के सन्दर्भ में बुद्धिस्थ मात्र होता है। तो शोघ की वैज्ञानिक पद्धति है । “विवेच्य" को उसके "प्रत्येक व्यक्ति अपने घर जाता है" किन्तु प्रत्येक का प्रत्येक स्तरानुरूप विश्लेषित कर विवेचित करते हुए "घर" अलग होता है । संसार में एक ही प्रकार की वर्गबद्ध करने के अनन्तर संश्लिष्ट सत्य तक पहुँचने वस्तु के लिए कितने भिन्न शब्द हैं -- इसकी निश्चित की विधि है । विज्ञान केवल जड़ का अध्ययन करता है। संख्या नहीं बतलायी जा सकती । एक ही भाषा में एक स्याद्वाद ने प्रत्येक सत्य की खोज की पद्धति प्रदान की ही शब्द भिन्न अर्थों और अर्थ-छायाओं में प्रयुक्त होता है। इस प्रकार यदि हम प्रजातन्त्रात्मक युग में वैज्ञानिक है, इसी कारण अभिप्रेत अर्थ की प्रतीति न करा पाने ढंग से सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हैं तो पर वक्ता को श्रोता से कहना पड़ता है कि मेरा यह अनेकान्त से दष्टि लेकर स्याद्वादी प्रणाली द्वारा ही वह अभिप्राय नहीं था अपितु मेरे कहने का मतलब यह कर सकते हैं। था-दूसरे के अभिप्राय को न समझ सकने के कारण
महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन का सापेक्षवाद एवं इस विश्व में कितने संघर्ष होते हैं ? स्याद्वाद वस्तु के
जैन दर्शन का अनेकान्तवाद वैचारिक धरातल काफी विरोधी गुर्गों की प्रतीतियों द्वारा उसके अन्तिम सत्य
निकट है। आइन्स्टीन मानता है कि विविध सापेक्ष्य तक पहुंच सकने की क्षमता एव पद्धति प्रदान करता है।
स्थितियों में एक ही वस्तु में विविध विरोधी गुण पाये जब कोई व्यक्ति खोज के मार्ग में किसी वस्तु के
जाते हैं। "स्यात" अर्थ की दष्टि से "सापेक्ष्य" के सम्बन्ध में अपने "सन्धान" को अन्तिम मानकर बैठ
सबसे निकट है। जाना चाहता है, तब स्याद्वाद संभावनाओं एवं शक्यताओं का मार्ग प्रशस्त कर अनुसन्धान की प्रेरणा आइन्स्टीन के मतानुसार सत्य दो प्रकार के होते देता है। स्याद्वाद केवल सम्भावनाओं को ही व्यक्त हैं-(1) सापेक्ष्य सत्य, और (2) नित्य सत्य ।
४३
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________ आइन्स्टीन के मतानुसार हम केवल सापेक्ष सत्य वैज्ञानिक एवं सामाजिक दोनों तरह की समस्याओं का को जानते हैं; नित्य सत्य का ज्ञान तो सर्व विश्वदष्टा / अहिंसात्मक समाधान है। यह दर्शन आज की प्रजाको ही हो सकता है। तन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था एवं वैज्ञानिक सापेक्षवादी चिन्तन के भी अनुरूप है। इस सम्बन्ध में सर्वपल्ली जैनदर्शन एकत्व एवं नानात्व दोनों को सत्य मानता है। अस्तित्व की दृष्टि से सब द्रध्य एक हैं, राधाकृष्णन का यह वाक्य कि "जैन-दर्शन सर्व साधारण को पुरोहित के समान धार्मिक अधिकार प्रदान अत: एकत्व भी सत्य है; उपयोगिता की दृष्टि से द्रव्य करता है" अत्यन्त संगत एवं सार्थक है / "अहिसा परमो अनेक हैं अतः नानात्व भी सत्य है। धर्मः" को चिन्तन-केन्द्रक मानने पर ही ससार युद्ध एवं वस्तु के गुण-धर्म चाहे नय-विषयक हो चाहे हिंसा का वातावरण समाप्त हो सकता है। आदमी के प्रमाण-विषयक, वे सापेक्ष होते हैं / वस्तु को अखण्ड भीतर की अशान्ति, उद्वेग एवं मानसिक तनावों को भाव से जानना प्रमाण-ज्ञान है तथा वस्तु के एक अंश यदि दूर करना है और अन्तत: मानव के अस्तित्व को को मुख्य करके जानना नयज्ञान है। वनाये रखना है तो भगवान् महावीर की वाणी को युगीन समस्याओं एवं परिस्थितियों के संदर्भ में व्याख्याविज्ञान की जो अध्ययन-प्रविधि है, जैन-दर्शन में यित करना होगा। यह ऐसी वाणी है जो मानव-मात्र ज्ञानी की वही स्थिति है। जो नय-ज्ञान का आश्रय के लिए समान मानवीय मूल्यों की स्थापना करती है। लेता है वह ज्ञानी है। अनेकान्तात्मक वस्तु के एक-एक सापेक्षवादी सामाजिक संरचनात्मक व्यवस्था का अंश को ग्रहण करके ज्ञानी ज्ञान प्राप्त करता चलता चिन्तन प्रस्तुत करती है; पूर्वाग्रह-रहित उदार दृष्टि से है / एकान्त के आग्रह से मुक्त होने के लिए यही पद्धति एक-दूसरे को समझने और स्वयं को तलाशने-जानने के ठीक है। लिए अनेकान्तवादी जीवन दृष्टि प्रदान करती है। समाज इस प्रकार भगवान महावीर ने जिस जीवन-दर्शन के प्रत्येक सदस्य को समान अधिकार एवं स्व-प्रयत्न को प्रतिपादित किया है, वह आज के मानव की मनो- से विकास करने का साधन जुटाती है।