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स्वार्थ की सिद्धि चाहनेवाले दलाल आध्यात्म के सत्य एवं मानसिक विषमताओं का कारण कर्मों का भेद है। को भौतिकवादी व्यवस्थाओं से बार-बार ढंकने का जीवन शरीर से भिन्न एवं चैतन्य का कारण है। जब प्रयास करते हैं। शताब्दी में एकाध व्यक्ति ही ऐसे सर्व कर्मों का क्षय होता है तो प्रत्येक जीव अनन्त ज्ञान, होते हैं जो धर्म के क्षेत्र में व्याप्त- पाखण्ड, कदाचार, अनन्त श्रद्धा एवं अनन्त शक्ति से स्वतः सम्पन्न हो जाता अमानवीयता पर प्रहार कर वास्तविक सत्य का उद्घा- है। महावीर ने व्यक्ति के चरम पुरुषार्थ को ही नहीं टन करते हैं । उपनिषद्कार के युग में भी याज्ञिक धर्म जगाया; प्रज्ञा, विवेक एवं आचरण के बल पर अध्यात्म की विकृतियाँ इतनी उजागर हो गई थीं कि उसे कहना पथ का अनुवर्तन करनेवाले धार्मिक मानव को देवपड़ा कि अमृत तत्व सोने के पात्र से ढंका हआ है। ताओं का भी उपास्य बना विया । उन्होंने कहा कि मध्ययुगीन सतो ने भी धर्म के बाह्याडम्बरों पर चोट अहिंसा, संयम एवं तप रूप धर्म की साधना करनेकी । सन्त नामदेव ने 'पाखण्ड भगति राम नहीं रीझे' वाले साधक को देवता भी नमस्कार करते हैं । कहकर धर्म के तात्विक स्वरूप की ओर ध्यान आकृष्ट किया तो कबीर ने 'जो घर जारे आपना, चले हमारे इसके अतिरत्ति जैन दर्शन में अहिंसावाद पर आधासाथ' का आह्वान कर साधना पथ पर द्विधारहित रित, क्षमा-मैत्री, स्वसंयम तथा परप्राणियों को आत्म संशयहीन मन:स्थिति से कामनाओं का सर्वथा त्याग तुल्य देखने की भावना पर बहुत बल दिया गया है। कर आगे बढ़ने की बात कही। पंडित लोग पढ-पढकर आत्म स्वरूप को पहचानने में अपने को गलाना पड़ता वेद बखानते हैं, किन्तु उसकी सार्थकता क्या है ? जीवन है, ममत्व भाव को त्यागना पड़ता है और उस स्थिति की चरितार्थता तो इसमें है कि आत्मविचार पूर्वक में आत्मा को जानने का अर्थ 'सम्भाव' हो जाना होता समदृष्टि की साधना की जावे और ऐसी साधना के बल । पर ही दादूदयाल यह कहने में समर्थ हो सके कि "काया
आत्मानुसंधान प्रक्रिया में यदि व्यक्ति अपने को अन्तर पाइया, सब देवन को देव ।' उपनिषदों में जिस 'तत्वमार्स' सिद्धान्त का उल्लेख हआ है जैन-दर्शन में
संसार की पूजा-प्रतिष्ठा का अधिकारी मान बैठता है उसी विचारणा की विकसित एव नवरूपायित अभि
तो साधना का दम्भ सारी तपस्या को निष्फल कर देता
है। उसे सदैव संयत, सुव्रत, तपस्वी एवं आत्म-गवेषक व्यक्ति है जहां प्राणी मात्र की स्वतंत्रता, समता एवं स्वावलम्बित स्थिति का दिग्दर्शन कराया गया है।"
रहना चाहिये । सतत् आत्मानुसधान ही साधना है। संसार में अनन्त प्राणी हैं और उनमें से प्रत्येक में
ऐसे साधक के मन में अपनी प्रशंसा सुनने का प्रश्न ही जीवात्मा विद्यमान है। कर्मबंध के फलस्वरूप जीवा
उपस्थित नहीं होता क्योंकि वह सत्कार तथा पूजा
प्रतिष्ठा की इच्छा ही नहीं रखता, नमस्कार तथा त्मायें जीवन की नाना दशाओं, नाना योनियों, नाना
वंदना कराने की भावना ही नहीं रखता 'स्व' को पूरी प्रकार के शरीरों एवं अवस्थाओं में परिलक्षित होती
तरह से त्यागकर आत्म-गवेषक एक को जानकर सब हैं किन्तु सभी में ज्ञानात्मक विकास के द्वारा उच्चतम
___को जान लेता है। एक को जानने का अर्थ ही है सबको विकास की समान शक्तियाँ निहित हैं।
जानना तथा सबको जानना ही एक को जानना है। यह जब सभी प्राणी अपनी मुक्ति चाहते हैं तथा स्वयं दर्शन साधना की परम्परा अविछिन्न रही और इसने के प्रयत्नों से ही उस मार्ग तक पहुँच सकते हैं तथा 'इकाई' को परम परमार्थता, अनन्तता एवं सर्वकोई किसी के मार्ग में तत्वतः बाधक नहीं तब फिर व्यापकता के गुण प्रदान किये। जब शंकराचार्य 'अहं किसी से संघर्ष का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? शारीरिक व्रम्हास्मि' की बात करते हैं या कबीर "मैं सबहिन्ह
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