Book Title: Mahavir ki Vani ka Mangalmay Krantikari Swaroop Author(s): Mahavir Sharan Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 1
________________ महावीर की वाणी का मंगलमरा क्रांतिकारी स्वरूप Jain Education International भगवान महावीर ने जिस धर्म एवं दशन का प्रचार प्रसार किया; जिस सत्य की सुस्पष्ट व्याख्या की, जिन दार्शनिक प्रतिपतिकाओं को सुव्यवस्थित ढ़ंग से अभिव्यक्त किया, उनके सूत्र यद्यपि भारतीय प्राक्-वैदिक युग से ही पोषित एवं विकसित होते आये हैं तथापि महावीर ने श्रमण-दर्शन की निग्रन्थ परम्परा में तेईसवें तीर्थ कर तथा ऐतिहासिक व्यक्तित्व पार्श्वनाथ के बा यम धर्म के स्थान पर "पंच महाव्रत" का उपदेश देकर तथा आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चरित्र से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बनाकर भारतीय मनीषा को नया मोड़ दिया । उन्होंने धर्म के उत्कृष्ट मंगलमय स्वरूप की व्याख्या ही नहीं की, "धम्मो मंगलमुविकटठं" कहकर धर्म को मंगलमय साधना का पर्याय बना दिया । उनका जीवन आध्या डा० महावीर शरण जंन त्मिक चिंतन मनन एवं संयमी जीवन का साक्षात्कार है; निष्कर्मदर्शी के निष्कर्म आत्मा को देखने का दर्पण है; आत्मा को आत्मसाधना से पहचानने का मापदण्ड है: तप द्वारा कर्मों का क्षय करके आत्म स्वभाव में रमण करने की प्रक्रिया है तथा सबसे बड़ी बात यह कि किसी के आगे झुककर अनुग्रह की वैशाखियों के द्वारा आगे बढ़ने की पद्धति नहीं प्रत्युत अपनी ही शक्ति एवं साधना के बल पर जीवात्मा के परमात्मा बनने की वैज्ञानिक प्रयोगशाला है । भगवान महावीर के युग में भौतिकवादी एव संशयमूलक जीवन दर्शन के मतानुयायी चिन्तकों ने समस्त धार्मिक मान्यताओं, चिर संचित आस्था एवं विश्वास के प्रति प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया था। पूरणकस्सप मक्खल गोसाल, अजितकेसकम्बलि, पकुध ४३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8