Book Title: Mahavir ki Dharmatattva Deshna Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 5
________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त ७ भी वस्तुरूपसे उसके दर्शन और ज्ञानमें प्रति समय प्रतिबिम्बित और प्रतिभासित होती हैं । दो आदि वस्तुओंका संयोग या बन्ध (मिश्रण) उनके दर्शन और ज्ञानमें प्रतिविम्बित और प्रतिभासित नहीं होता है । इसका कारण यह है कि संयुक्त अथवा बद्ध (मिश्रित ) वस्तुओंकी अखण्ड एकरूपता कदापि सम्भव नहीं है क्योंकि एक वस्तु के गुण-धर्म कभी दूसरी वस्तुमें प्रविष्ट नहीं हो सकते हैं । जैसे द्वयणुक दो पुद्गल परमाणुओंके बन्ध (मिश्रण) से बना है, परन्तु उसमें प्रत्येक परमाणु एक-दूसरे परमाणुके निमित्तसे अपना-अपना पृथक्-पृथक् ही परिणमन कर रहा है । दोनों परमाणुओंका एक परिणमन नहीं हो रहा है । अतः जब दो परमाणु मिलकर एक परिणमन नहीं कर रहे हैं, तो वे उस मिले हुए रूप में सर्वज्ञके ज्ञानके विषय कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं । इससे सिद्ध होता है कि सर्वज्ञके दर्शन व ज्ञानमें द्वयणुक में विद्यमान दोनों परमाणु एकदूसरेके निमित्तसे होनेवाले अपने-अपने परिणमनके साथ तादात्म्यको प्राप्त होते हुए पृथक्-पृथक् ही प्रतिबिम्बित और प्रतिभासित होते हैं । यही बात द्वयणुकसे ऊपर छोटे-बड़े सभी स्कन्धोंके विषयमें जान लेना चाहिए । एक प्रश्न यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि जब चन्द्रमाकी रचना और उसकी भूमितलसे दूरी आदिका तथ्यात्मक (जैसा है वैसा) ज्ञान अल्पज्ञ आप्तोंको नहीं था तो फिर उन्होंने उनका अतथ्यात्मक ( जैसा नहीं है वैसा ) प्रतिपादन क्यों किया है ? समाधान उक्त प्रश्नका समाधान यह है कि अल्पज्ञ आप्तोंने चन्द्रमाकी रचना और उसकी भूमितलसे दूरी आदि का तथ्यात्मक प्रतिपादन किसी कषायवश नहीं किया है, केवल तथ्यात्मक ( जैसा है वैसा) प्रतिपादन के लिए साधनों की कमी होने के कारण ही वह अतथ्यात्मक (जैसा नहीं है वैसा) प्रतिपादन जैसा समझ में आया वैसा प्रयोजनभूत समझकर किया है । इसलिये इन्हें मिथ्यादृष्टि या मिथ्याज्ञानी नहीं समझना चाहिए, क्योंकि गोम्मटसार जीवकाण्ड में यह स्पष्ट लिखा है कि सम्यग्दृष्टि जीव तथ्यात्मक वस्तुका श्रद्धान तो करता ही है। लेकिन साधनों के अभाव में वह अतथ्यात्मक वस्तुको भी तथ्यात्मक समझकर उसका भी श्रद्धान करता है और ऐसा श्रद्धान करते हुए भी वह मिध्यादृष्टि न होकर सम्यग्दृष्टि ही बना रहता है । इतना अवश्य है कि यदि उसे कालान्तर में अपनी भूल किसो प्रकार समझ में आ जावे, फिर भी वह उस अतथ्यात्मक प्रतिपादनको तथ्यात्मक मानने का ही आग्रह करता है तो तब वह सम्यग्दृष्टि न रहकर मिथ्यादृष्टि ही हो जाता है ।" इस तरह आज भौतिक विज्ञान द्वारा किया गया चन्द्रमाकी रचना व उसकी भूमितलसे दूरी आदिका निर्णय अल्पज्ञ आप्तों द्वारा प्रतिपादित आगमसे विपरीत होते हुए भी यदि तथ्यात्मक हो तो उसे स्वीकार करनेमें हमें संकोच नहीं होना चाहिए; क्योंकि इससे हमारे आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानको कोई ठेस पहुँचनेकी सम्भावना नहीं है। एक बात और है कि अल्पज्ञ आप्तों द्वारा लोक-कल्याण भावनासे जान-बूझकर भी अतथ्यात्मक विवेचन कर दिया जाता है । जैसे भोले बच्चे की माँ बच्चेकी सुरक्षाकी दृष्टिसे कह दिया करती है कि "बेटा ! १. सम्माइट्ठी जीवो उवइटुं पवयणं तु सद्दहृदि । सहदि असम्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ २७ ॥ सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि । सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदि ॥ २८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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