Book Title: Mahavir ki Dharmatattva Deshna
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ १० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ वचन बोलना, आवश्यकतानुसार दूसरोंकी यथाशक्ति तन, मन और धनसे सहायता करना तथा जीवनके लिए उपयोगी कौटुम्बिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, मानवोचित और सांस्कृतिक-संरक्षणका पूरा-पूरा प्रयत्न करना। ५. शौच-अपने जीवनकी सुरक्षा और शान्तिके लिए कुटुम्ब, समाज, नगर, राष्ट्र, विश्व और संस्कृतिके संरक्षणका पूरा-पूरा प्रयत्न करते हुए जीवन-रक्षामें उपयोगी साधनोंके संग्रह और उपयोगका यथोचित ध्यान रखना अर्थात् न तो जीवन रक्षाके लिए पराश्रित-वृत्ति अपनाना और न उपयोगमें कंजूसी करना। ६. संयम-अपने जीवनकी सुरक्षामें साधन-भूत सामग्रीके संग्रह और उपयोगमें कुटुम्ब, समाज, नगर, राष्ट्र, विश्व और संस्कृतिके संरक्षणका पूरा-पूरा ध्यान रखते हुए अपनी आवश्यकताओं और अपने अधिकारोंकी सीमा निर्धारित करना और अनावश्यक, प्रकृति-विरुद्ध, संस्कृति-विरुद्ध और लोक-विरुद्ध एवं अधिकारके बाहर उपयोग नहीं करना--इस प्रकार जीवनमें सादगी बना लेना। ७. तप-बाह्य प्रयत्नों द्वारा शरीरको आत्मनिर्भर बनानेका प्रयत्न करना तथा अन्तरंग प्रयत्नों द्वारा आत्माकी स्वालवम्बन शक्तिको जागृत करना-इस प्रकार जीवन की वर्तमान आवश्यकताओंको कम करना। ८. त्याग-बाह्य-प्रयत्नों द्वारा उत्तरोत्तर वृद्धिंगत शरीरकी आत्मनिर्भरता और अन्तरंग-प्रयत्नों द्वारा उत्तरोत्तर वद्धिगत आत्माकी स्वावलम्बनशक्तिके अनुरूप भोगसामग्रीके संग्रह और उपभोगमें धीरेधीरे यथायोग्य क्रमसे कमी करते जाना अर्थात जीवनरक्षाकी साधनभत उपयोग-सामग्रीका धीरे-धीरे यथाक्रमसे यथाशक्ति त्याग करना । ९. आकिंचन्य-उपर्युक्त दोनों प्रकारके प्रयत्नों द्वारा ही उत्तरोत्तर वृद्धिगत शरीरकी आत्मनिर्भरता व आत्माकी स्वावलम्बन-शक्तिके अनुरूप जीवन-रक्षाकी साधनभूत उपभोग-सामग्रीके अवलम्बनको यथोक्त क्रम से कम करते-करते अन्तमें अकिंचन ( नग्न, दिगम्बर-मद्राधारी बनकर मोक्ष (आत्मस्वातन्त्र्य ) की पूर्णता प्राप्त करने के लिए गृहवासको छोड़कर बनवासी हो जाना। १०. ब्रह्मचर्य-उपर्युक्त दोनों प्रकारके प्रयत्नों द्वारा उत्तरोत्तर वृद्धिंगत शरीरकी आत्म-निर्भरता और आत्माकी स्वालम्बन-शक्तिके आधारपर ही भूख, प्यास, रोग आदि शारीरिक बाधाओंके पूर्णतः नष्ट हो जाने ( शरीरके पूर्णरूपसे आत्मनिर्भर हो जाने ), तथा आत्माकी स्वालम्बन, शक्तिका चरम-विकास हो जानेपर आत्माके स्वभावभूत अनन्त-चतुष्टय (असीमित-दर्शन, असीमित-ज्ञान असीमित-वीर्य और असीमितसुख ) का उद्भव हो जानेके पश्चात् यथासमय आयुकी समाप्ति हो जानेपर संसार ( शरीरके साथ आत्माके विद्यमान सम्बन्ध ) का सर्वथा विच्छेद हो जाना और तब आगे अनन्तकालतक आत्माका अपने स्वतन्त्रस्वरूप में ही रमण करते रहना। इस प्रकार दश धर्मोके स्वरूपका आगमके आधारपर जो यह दिग्दर्शन कराया गया है, वह मानवजीवनमें धर्मके क्रमिक-विकासको बतलाता है तथा इससे तीर्थंकर महावीरकी देशनामें प्रतिपादित धर्मका स्वरूप और उसका प्रारम्भिक व सर्वोत्कृष्ट रूप सरलतासे समझमें आ जाता है। १. तत्त्वार्थसूत्र ९।१६ । २. तत्त्वार्थसूत्र ९।२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15