Book Title: Mahavir ka Vyavaharik Drushtikon Author(s): Kanakprabhashreeji Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 5
________________ । स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ 3888888888888888888888888888 यह स्पष्ट है कि यह निषेध व्यावहारिक भूमिका को ही छूनेवाला है। उपरोक्त कुलों में भिक्षा करने से साधक की साधना में कोई बाधा नहीं आ सकती है। फिर भी इस प्रसंग की चर्चा को समाहित करते हुए टीकाकार लिखते हैं - जुगुप्सित कुलों की भिक्षा लेने से जैन शासन की लघुता होती है। जैन दर्शन का अध्येता इस बात से अनभिज्ञ नहीं है कि वह जातिवाद को तात्त्विक नहीं मानता। उसके आधार पर किसी को हीन तथा जुगुप्सित मानना हिंसा है। फिर भी प्रतिक्रुष्ट कुलों की भिक्षा का निषेध किया गया है। जहां तक हम समझ पाए है वैदिक परम्परा के बढ़ते हुए प्रभाव को ध्यान में रखकर ही इसका निषेध किया गया है। भिक्षु संसक्त दृष्टि से न देखे। यह सामान्य कथन है। इसका वाच्यार्थ यह है कि साधु एवं साध्वी क्रमशः बहन तथा भाई की दृष्टि में दृष्टि में दृष्टि गड़ाकर न देखे। इस निषेध के दो कारण बताए गए हैं। पहला निश्चय की भुमिका पर अवस्थित है। आसक्त दृष्टि से देखने पर ब्रह्मचर्य पीड़ित होता है। दूसरा कारण व्यवहार से संबंधित है। हृदय शुद्ध होने पर भी इस प्रकार देखने से लोग आक्षेप कर सकते हैं कि यह मुनि विकार-ग्रस्त है। भिक्षा ग्रहण करते समय भिक्षु अपनी दृष्टि संयत रखे। अति दूरस्थ वस्तुओं को न देखे। इस प्रकार देखने से मुनि के चोर या पारदारिक होने की आशंका हो सकती है। भिक्षार्थ गृहस्थ के घर में प्रविष्ट मुनि विकसित नेत्रों से न देखे ।' इससे मुनि की लघुता होती है। आहार आदि के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने के बाद मुनि अन्दर कहां तक जाए ? इसका संकेत देते हुए भगवान महावीर ने कहा - मुनि अतिभूमि में न जाए। कुलभूमि को जानकर मितभूमि में प्रवेश करे। २ गृहस्वामी के द्वारा वर्जित या अननइज्ञात भूमि अतिभूमि है। गृहस्थ के द्वारा अवर्जित भूमि मितभूमि है। मुनि के लिए स्नान-गृह तथा शौच-गृह देखने का भी निषेध किया है। भिक्षा में यदि अमनोज्ञ और अपथ्य जल आ जाए तो मुनि उसे गृहस्थों की भांति इतस्ततः न फेंके। किन्तु उसे लेकर वह विजनभुमि में जाए और वहां शुद्ध भूमि पर धीरे से १. वही-५/१/२३ २. दसवेआलियं ५/१/२४ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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