Book Title: Mahavir ka Vyavaharik Drushtikon
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf

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Page 1
________________ स्वः मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ भगवान महावीर का व्यवहारिक दृष्टिकोण प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । अनन्त विरोधी धर्मों के साथ सामंजस्य स्थापित कर चलते रहना ही जीवन की पूर्णता है। अनन्त ज्ञेय धर्मों का भी सीमित संवेदन से ज्ञान करने का प्रशस्त साधन है हमारे पास स्यादवाद । पर एक साथ अनन्त धर्मों का ज्ञान व्यवहार्य नहीं हो पाता । व्यवहार्य है हमारे लिए नयवाद या सदवाद उनके सहारे हम अनभीप्सित वस्तु के अंश को निराकृत किए बिना ही अभीप्सित अंश का बोध या प्रतिपादन कर सकते हैं। - साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा निश्चय और व्यवहार हमारे चिन्तन के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं । विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न रूपों में निश्चय और व्यवहार दोनों की सत्ता को स्वीकार किया है । जैन दर्शन ने उसे निश्चय और व्यवहार की अभिधा से अभिहित किया। बौद्ध दार्शनिकों ने उसे परमार्थ सत्य तथा लोकसंवृति सत्य से पहचाना। सांख्य दर्शन ने उसे परमब्रह्म तथा प्रपंच कह कर पुकारा । Jain Education International 2010_03 स्यादवाद की भाषा में निश्चय और व्यवहार परस्पर भिन्न-भिन्न हैं । फिर भी एक वस्तु में एक साथ पाए जा सकते हैं । इस दृष्टि से दोनों में अद्वैत है । निश्चय वस्तु का आत्मगत धर्म है। वह सूक्ष्म है । व्यवहार वस्तु का देहगत धर्म है । वह स्थूल है । इस स्वरूप-मित्रता के कारण इन दोनों में द्वैत भी है । यद्यपि निश्चय निश्चय ही है और व्यवहार व्यवहार है । इनमें एकत्व नहीं हो सकता । निश्चय हमारा साध्य है । उसका साधन है - व्यवहार । इसीलिए सभी दार्शनिकों ने निश्चय के साथ व्यवहार को तत्त्वरूप में स्वीकार किया है। यहां तक कि व्यवहार को जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। क्योंकि निश्चय जहां उन्नत गिरिश्रृंग है, व्यवहार वहां तक पहुंचने के लिए घुमावदार पगडण्डी है । १५८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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