Book Title: Mahavir ka Vyavaharik Drushtikon Author(s): Kanakprabhashreeji Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 8
________________ दर्शन दिग्दर्शन सम्पादन करने का संकेत देता है। सूत्रकृतांग के चूर्णिकार भी इसी का अनुमोदन करते हुए लिखते हैं कि मुनि भिक्षा के समय भिक्षा करे। खाने के समय खाए। पीने के समय पीए । वस्त्रकाल में वस्त्र ग्रवण करे। लयनकाल में (गुफादि में रहने के समय अर्थात वर्षाकाल में) लयन में निवास करे। सोने के समय सोए। समय की नियमितता का महत्त्व निश्चय दृष्टि से भी है। क्योंकि उसके व्यतिक्रम से चित्त-विक्षेप होता है और मानसिक समाधि में विघ्न होता है, पर व्यवहार भी अपनी स्वस्थता खो देता है। वह मुनि लापरवाह कहलाता है। भिक्षार्थ गया हुआ मुनि गुहस्थ के घर में न बैठे। न ही वहां कथाप्रबन्ध करे।' भिक्षु भिक्षा ग्रहण करे, उतने समय तक उसे वहां खड़ा रहना पड़ता है । साधक वहां कैसे खड़ा रहे ? इसका विवेक भी भगवान महावीर ने दिया है - मुनि अर्गला, परिघा, द्वार, कपाट आदि का सहारा लेकर खड़ा न रहे । २ इससे मुनि की लघुता लगती है और कहीं गिर पड़ने से चोट लगने का भी भय रहता है। भिक्षा के लिए मुनि गृहस्थ के घर जाता है, उस समय द्वार पर यदि कोई श्रमण, ब्राह्मण, कृपण तथा भिखारी खड़े हो तो अनेको लांघकर अन्दर प्रवेश न करे और न गृहस्वामी तथा श्रमण आदि की आंखों के सामने खड़ा रहे। वनीपक आदि को लांघ कर अन्दर प्रवेश करने से गृहपति तथा वनीपक आदि को साधुओं से अप्रीति हो सकती है अथवा जैन शासन की लघुता प्रदर्शित होती है । ३ गुहस्वामी द्वारा निषेध कर देने पर अथवा दान दे देने पर जब वे लौट जाएं तब मुनि उस घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट हो। __ मुनि सामुदायिक भिक्षा करे। केवल जुगुप्सित कुलों को छोड़कर उच्चनीच कुलों का भेदभाव न रखते हुए सब घरों से भिक्षा ले। यह न हो कि वह सामुदानिक भिक्षा के क्रम में छोटे घरों को छोड़कर केवल बड़े-बड़े घरों की ही भिक्षा कर ले । ५ क्योंकि इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलता है। साधारण व्यक्ति सोचते हैं कि मुनिजी भी हमारी भिक्षा न लेकर हमारा तिरस्कार कर रहे हैं। १. दसवेआलियं ५/२/८ २. वही-५/२/९ ३. दसवेआलियं ५/२/१०-१२ ४. वही - ५/२/१३ ५. वही-५/२/२५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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