Book Title: Mahavir ka Vyavaharik Drushtikon Author(s): Kanakprabhashreeji Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 4
________________ का कारण बन सकता है। भिक्षार्थ जाता हुआ मुनि असंभ्रान्त रहे । क्योंकि संभ्रान्त अवस्था में मुनि शीघ्रता से चलता है । शीघ्रता के कारण ईयी समिति का पालन नहीं होता । चैतसिक विक्षिप्तता के कारण उचित - अनुचित का प्रश्न गौण हो जाता है । इन्हीं दोषों को ध्यान में रखते हंए भिक्षार्थ जाते समय साधु को असंभ्रान्त रहने का निर्देश दिया है । भिक्षा के लिए प्रस्थित मुनि मन्द मन्द गति से चले । यद्यपि भिक्षा के लिए संयत शीघ्र गति अविहित नहीं है। फिर भी व्यवहार में अच्छा नहीं लगता। क्योंकि दूसरे व्यक्ति उसके बारे में गलत अनुमान लगा सकते हैं। जैसे-यह भिक्षु इसलिए जल्दी चल रहा है कि अमुक वसति में अमुक भिक्षुक पहले न चला जाए या अमुक वस्तु उसे नहीं मिलेगी। दूसरे स्थान में यह भी बताया गया है कि साधु दबदब करता न चले। इससे प्रवचन की लघुता होती है। गोचरी के लिए गया हुआ मुनि मार्ग में आलोक - झरोखा या खिड़की, थिग्गल घर का वह द्वार जो किसी कारणवश पुनः चिना गया हो, संधि - दो घरों के बीच की गली या दीवार की ढंकी हुई सुराख और जलमंचिका की तरफ न देखे। ये शंका स्थान हैं । ' इन्हें इस प्रकार देखने से लोगों को मुनि पर चोर तथा पारदारिक होने का संदेह हो सकता है । दर्शन दिग्दर्शन 2 मुनि राजा, गृहपित - श्रेष्ठी और आरक्षकों के रहस्यमय स्थानों में न जाए । दूर से ही उन स्थानों का वर्जन करे। क्योंकि ये स्थान संक्लेशकर होते हैं। इन रहस्यमय स्थानों में जाने से साधु के प्रति स्त्रियों के अपहरण करने तथा मन्त्रभेद होने का सन्देह हो सकता है। सन्देहवश साधु को गिरफ्तार किया जा सकता है। अन्य भी अनेक प्रकार के कष्ट पहुंचाए जा सकते हैं। जिससे व्यर्थ ही साधु को अवहेलना का पात्र बनना पड़ता है । १. दसवे आलियं - ५/१/१५ २ . वही - ५/१/१६ ३. दसवे आलियं ५/१/१७ मुनि प्रतिक्रुष्ट कुलों में भिक्षा के लिए न जाए । प्रतिक्रुष्ट का शाब्दिक अर्थ है - निन्दित, जुगुप्सित तथा गर्हित । व्याख्याकारों के अनुसार प्रतिक्रुष्ट दो तरह के होते हैं अल्पकालिक और यावत्कालिक । अल्पकालिक - मृतक, सूतक आदि के घर । डोम-मातंग आदि के घर यावत्कालिक - सर्वदा प्रतिक्रुष्ट हैं। Jain Education International 2010_03 १६१ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12