Book Title: Mahavir Jivan aur Darshan
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 5
________________ कोई अलग प्रधान नहीं है किन्तु साम्य अवस्था को प्राप्त वे ही गुण प्रधान नाम से कहे जाते हैं। अतः प्रधान के अवयव रूप गुणों का और उनके समुदाय रूप प्रधान का परस्पर में कोई विरोध नहीं है । 1 वैशेषिक दर्शन में सामान्य को अनुवृति रूप और विशेष को व्यावृत्ति रूप माना गया है किन्तु पृथिवीश्व आदि को सामान्य विशेष रूप स्वीकार किया है। एक ही पृथिवीश्व अपने भेदों में अनुगत होने से सामान्य रूप और जलादि से व्यावृत्ति कराने से विशेष रूप माना गया है, इसी से उसे सामान्य विशेष कहा गया है। विज्ञानाईतवादी एक ही विज्ञान को ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और संवेदनाकार इस प्रकार तीन आकार रूप स्वीकार करते हैं । तथा सभी दार्शनिक पूर्व अवस्था को कारण और उत्तर अवस्था को कार्य स्वीकार करते हैं। अतः एक ही पदार्थ में अपनी पूर्व और उत्तर पर्याय की दृष्टि से कारण और कार्य का व्यवहार निर्विरोध होता है । उसी तरह सभी पदार्थ विभिन्न अपेक्षाओं से अनेक धर्मवाले होते हैं । इसे ही अनेकान्त कहते हैं । इस अनेकान्तवाद का खण्डन बादरायण के सूत्र 'नैकस्मिन्नसंभवात्' (2/5/33) में मिलता है। इसकी व्याख्या में स्वामी शंकराचार्य ने अनेकान्तवाद पर जो सबसे बड़ा दूषण दिया है वह है 'अनिश्चितता' । उनका कहना है कि 'वस्तु है और नहीं भी है ऐसा कहना अनिश्चितता को बतलाता है । और अनिश्चितता संशय को पैदा करती है । किन्तु ऊपर स्पष्ट किया गया है कि वस्तु स्वरूप से सत् है और पर रूप से असत् है । यह निश्चित है – इसमें अनिश्चितता को स्थान नहीं है। देवयत्त पिता भी है और पुत्र भी है, इसमें जैसे कोई अनिश्चितता नहीं है क्योंकि वह अपने पुत्र की अपेक्षा पिता और अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है, उसी तरह वस्तु सत् भी है और असत् भी, इसमें कोई - Jain Education International अनिश्चितता नहीं है क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्वरूप से सत् और पर रूप से असत् होती है यह निश्चित है। इसके बिना वस्तु व्यवस्था नहीं बनती वस्तु का वस्तुत्व दो मुद्दों पर स्थापित है-स्वरूप का ग्रहण और पर रूपों का त्याग। यदि इनमें से एक भी मुद्द े को अस्वीकार किया जाय तो वस्तु का वस्तुत्व कायम नहीं रह सकता । यदि वस्तु का अपना कोई स्वरूप न हो तो बिना स्वरूप के वह वस्तु नहीं हो सकती । इसी तरह स्वरूपकी तरह यदि वह पर रूप को भी अपना ले तो भी उसकी अपनी स्थिति नहीं रहती । वह तो सर्वात्मक हो जायेगी। स्याद्वाद पुत्र इस प्रकार जब वस्तु परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्मों का समूह है तो उसको जानना उतना कठिन नहीं है जितना उसे कहना कठिन है क्योंकि एक ज्ञान अनेक धर्मात्मक वस्तु को एक साथ जान सकता है किन्तु शब्द के द्वारा एक समय में वस्तु के एक ही धर्म को कहा जा सकता है। उस पर भी शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के अधीन है। बक्ता वस्तु के अनेक धर्मो में से किसी एक धर्म को मुख्य करके बोलता है । जैसे देवदत्त को उसका पिता पुत्र कहकर बुलाता है और पिता कहकर पुकारता है। किन्तु देवदत न केवल पिता है और न केवल पुत्र है। वह तो दोनों है । किन्तु पिता की दृष्टि से देवदत्त का पुत्रत्व धमं मुख्य है और पुत्र की दृष्टि से पितृत्व धर्म मुख्य है। शेष धर्म गौण है क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तु के जिस धर्म की विवक्षा होती है वह धर्म मुख्य और शेष धर्म गौण होते हैं। अतः वस्तु के अनेक धर्मात्मक होने और शब्द में एक समय में उन सब धर्मों को कहने की शक्ति न होने से तथा बक्ता का अपनी-अपनी दृष्टि से वचन व्यवहार करते देखकर, वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझने में श्रोता को कोई धोखा न हो, इसलिये अनेकान्तवाद में से स्याद्वाद का आविष्कार हुआ। २६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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