Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर, जिनके निर्वाण की पच्चीसवीं रजत शती की पूर्ति के अवसर पर सर्वत्र महोत्सव मनाये गये हैं, जैन धर्म के अन्तिम तीर्थकर थे । और प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे । भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती थे । उन्हीं के नाम से यह देश भारतवर्ष कहलाया ।
जब भगवान ऋषभदेव को पूर्णज्ञान की प्राप्ति हुई और उन्होंने अपने उपदेश में कहा कि मेरे पश्चात् तेईस तीर्थंकर और होंगे तो किसी ने प्रश्न किया - क्या यहाँ उपस्थित जन समुदाय में कोई ऐसा व्यक्ति है जो भविष्य में तीर्थंकर होनेवाला है ? भगवान ने उत्तर दिया- भरत का पुत्र मरीचि अन्तिम तीर्थंकर होगा । यह बात मरीचि ने भी सुनी। और भगवान की वाणी अन्यथा नहीं हो
भगवान महावीर जीवन और दर्शन
- पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री सिद्धान्ताचार्य
सकती, इस विश्वास के आधार पर अपना तीर्थंकरत्व सुनिश्चित जान वह मदमत्त हो उठा। और उसने अपने कर्मानुसार अनेक गतियों में भ्रमण किया । प्राचीन जैन आगमों में भगवान महावीर के पूर्वजन्मों का इतिवृत्त विस्तार से वर्णित है। एक बार वह सिंह की पर्याय में एक मृग पर झपटते हैं। उधर से जाते हुए मुनिराज की दृष्टि उन पर पड़ती है। अपने ज्ञान से यह जानकर कि यह जीव भविष्य में तीर्थंकर होनेवाला है, वे उसे सम्बोधते हैं और यहीं से उनके जीवन का उत्थान प्रारम्भ होता है, और अन्त में वह वैशाली के राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला के गर्भ में अवतरित होकर महावीर के रूप में जन्म लेते हैं । और 28 वर्ष की युवावस्था में प्रब्रजित होकर 12 वर्ष तक कठोर साधना के द्वारा पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके तीर्थंकर होते हैं और सर्वत्र विहार करके अपने धर्म का उपदेश करते हैं । अन्त में बिहार प्रान्त के ही पावानगर में उनका निर्वाण होता है । उसी के उपलक्ष में जैन शास्त्रों में दीपावली का त्यौहार प्रवर्तित होने का उल्लेख मिलता है । यतः भगवान महावीर का निर्वाण अमावस्या को ब्राह्म मुहूर्त में हुआ था, अतः अन्धकार दूर करने के लिये दीपक जलाये गये थे । वे भगवान के ज्ञानदीप के प्रतीक भी थे ।
भगवान महावीर का यह जीवनदर्शन उनके दर्शन का भी परिचायक है । भगवान महावीर के दर्शन में अवतारवाद को स्थान नहीं है
२५
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
और प्रत्येक आत्मा को परमात्मा बन सकने की शक्ति सर्वथा असत का उत्पाद नहीं होता। फिर भी वस्तु में से सम्पन्न माना है। अपने ही दुष्कर्मों से जीव दुर्गति प्रति समय उत्पाद-विनाश हुआ करता है। का भागी होता है और अपने ही पुरुषार्थ से निर्वाण प्राप्त करता है। ईश्वरवादी दर्शन जीव को कम करने में अनेकान्तस्वतंत्र और उसका फल भोगने में परतंत्र मानते हैं। कहा है
__ जैनागम के अनुसार भगवान महावीर के मुख से
जो प्रथम वाक्य निस्टत हुआ, वह था- 'उप्पन्नेइ वा, अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख दु:खयोः । विगमेइवा, धुवेइ वा' अर्थात् प्रत्येक वस्तु उत्पन्न होती ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ।।
है, नष्ट होती है और ध्रव होती है । इसे जैन दर्शन में
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कहते हैं। ये तीनों प्रत्येक वस्तु में अर्थात्--यह अज्ञानी जीव अपने सुख-दुःख का स्वामी प्रति समय सदा हुआ करते हैं। तभी वस्तु सत् होती नहीं है। ईश्वर की प्रेरणा से स्वर्ग अथवा नरक में है। अत: जैन दर्शन में सत का लक्षण ही उत्पाद-व्ययजाता है।
ध्रौव्य है। इसी से तत्वार्थ सत्र में कहा है-'उत्पाद
व्यय ध्रौव्य युक्त सत्। किन्तु भगवान महावीर के दर्शन में इस प्रकार के ईश्वर की कोई स्थिति नहीं है। इस दृष्टि से उनका उदाहरण के लिये- जब कुम्हार चाक धुमाकर दर्शन निरीश्वरवादी है। जैसे शराब पीने से नशा स्वयं मिट्टी का बरतन बनाता है तो प्रति समय मिट्टी की होता है और दूध पीने से स्वयं शरीर में पुष्टि आती पुरानी दशा नष्ट होकर नई दशा उत्पन्न होती है और है, उसमें ईश्वर का कोई हाथ नहीं है । उसी तरह मिट्टी रूप अवस्था ध्र व रहती है। पुरानी दशा के दुष्कर्म करने वाले मनुष्य की परिणति स्वयं ऐसी होती नष्ट होने और नई दशा के उत्पन्न होने में काल भेद है कि वह अपने कर्म से प्रेरित होकर नरक जाता है नहीं है, पूरानी दशा का विनाश ही नई दशा का और शुभकर्म करनेवाला स्वर्ग जाता है। जैन सिद्धान्त उत्पादन है। में कर्मसिद्धान्त अपना एक विशिष्ट स्वतंत्र स्थान रखता है। उसकी प्रक्रिया को समझ लेने पर फलदान की स्थिति विनाश के बिना उत्पाद नहीं, उत्पाद के बिना स्पष्ट हो जाती है। जगत का समस्त व्यापार बिना विनाश नहीं, और ध्रौव्य के बिना उत्पाद विनाश नहीं किसी नियन्ता के कार्यकारण भाव की परम्परा पर तथा उत्पादन विनाश के बिना धौव्य नहीं। अतः जो स्वयं चलता रहता है। जगत की प्रक्रिया ही ऐसी है। उत्पाद है वही विनाश है। जो विनाश है वही उत्पाद उसे न कोई बनानेवाला है और न कोई विनष्ट करने- है, जो उत्पाद विनाश है वही ध्रीव्य है और जो ध्रौव्य वाला है।
है वही उत्पाद विनाश है। जैसे घड़े की उत्पत्ति ही
मिट्टी की पिण्ड अवस्था का विनाश है क्योंकि भाव प्रत्येक वस्तु स्वतः स्वभाव से ही परिणमनशील भावान्तर के अभाव रूप से अवभासित होता है। जो है। किन्तु वह परिणमन ऐसा नहीं होता कि वस्तु का मिट्टी के पिण्ड का विनाश है वही घट का उत्पाद है सर्वथा विनाश हो जाये या एक तत्व बदलकर दूसरे क्योंकि अभाव भावान्तर के भावरूप से अवभासित होता तत्व रूप हो जाये। दर्शनशास्त्र का एक सामान्य है । तथा जो घट का उत्पाद और मिट्टी के पिण्ड का नियम है-सत् का सर्वथा विनाश नहीं होता और विनाश है वही मिट्टी की ध्र वता है क्योंकि अन्वय का
२६
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशन व्यतिरेक मुख से ही होता है। तथा जो मिट्टी पर्याय नहीं और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं होता, जैसे की ध्र वता है वही घट का उत्पादन और मिट्टी के उत्पाद व्यय के बिना ध्रौव्य और ध्रौव्य के बिना उत्पाद पिण्ड का विनाश है क्योंकि व्यतिरेक अन्वय का अति- व्यय नहीं होते। उत्पाद व्यय पर्याय या परिणमन का क्रमण नहीं करता।
सूचक है ओर ध्रोव्य स्थिरता या द्रव्यरूपता का सूचक
यदि ऐसा न माना जाये तो उत्पाद भिन्न, विनाश भिन्न और ध्रौव्य भिन्न ठहरता है। ऐसी स्थिति में
द्रव्य स्वरूप से सत् है और पररूप से असत् है। केवल घट का उत्पाद कोई चाहे तो घट उत्पन्न नहीं न वह सर्वथा सत् ही है और न वह सर्वथा असत् ही हो सकता क्योंकि मिटटी के पिण्ड का विनाश हए बिना है। यदि प्रत्येक वस्तु को सर्वथा सत् माना जाय तो घट उत्पन्न नहीं होता । वही उसका कारण है। उसके सब वस्तुओं के सर्वथा सत् होने से उनमें जो भेद है बिना तो असत का उत्पाद मानना होगा और तब उसका लोप हो जायेगा और उसके लोप होने से सब आकाश के फूल जैसे असंभव वस्तुओं का भी उत्पाद
वस्तुएँ परस्पर में एक हो जायेंगी। उदाहरण के लिये होगा। तथा केवल विनाश चाहने पर मिट्टी के पिण्ड का
घट और पट ये दो वस्तु हैं। जब हम किसी से घट विनाश नहीं होगा क्योंकि आगामी पर्याय के उत्पाद के
लाने को कहते हैं तो वह घट ही लाता है पट नहीं लाता, बिना पूर्वपर्याय का विनाश नहीं होता। यदि ऐसा हो
और जब पट लाने को कहते हैं तो पट ही लाता है तो सत का विनाश मानना होगा।
घट नहीं लाता। इससे सिद्ध है घट घट ही है और पट
पट ही है । न घट पट है और न पट घट है । अतः घट पूर्वपर्याय से युक्त द्रव्य उपादान कारण होता है घट रूप से है और पट रूप से नहीं है। इसी को दार्शऔर उत्तरपर्याय से युक्त वही द्रव्य उपादेय कार्य होता निक भाषा में कहते हैं घट है और नहीं है। उसका है। आप्तमीमांसा में कहा है
विश्लेषण होता है घट घट रूप से है पट रूप से नहीं
है और पट पट रूप से है घट रूप से नहीं है। इसी 'कार्योपादः क्षयो हेतोनियमात् लक्षणात् पृथक्। प्रकार प्रत्येक वस्तु स्वरूप से है और पर रूप से नहीं उपादान का पूर्व आकार रूप से विनाश कार्य का है। अतः संसार में जो सत है वह किसी अपेक्षा असत उत्पाद है क्योंकि जो कार्य के उत्पाद का कारण है वही भी है। सर्वथा सत् या सर्वथा असत् कोई वस्तु नहीं है। पूर्व आकार के विनाश का कारण है । इस प्रकार पूर्व अतः एक ही समय में द्रव्य सत भी है और असत् भी पर्याय उत्तर पर्याय का कारण होती है और उत्तर पर्याय है। स्वरूप से सत है और पर रूप से असत है। पूर्व पर्याय का कार्य होती है। इस तरह वस्तु के पूर्व और उत्तर परिणाम को लेकर तीनों कालों के प्रत्येक इसी तरह एक ही समय में वस्तु नित्य भी है और समय में कार्यकारण भाव हुआ करता है । जो पर्याय अनित्य भी है। द्रव्य की अपेक्षा नित्य है क्योंकि द्रव्य अपनी पूर्व पर्याय का कार्य होती है वही पर्याय अपनी रूप का नाश नहीं होता और पर्थाय की अपेक्षा अनित्य उत्तर पर्याय का कारण होती है। इस तरह प्रत्येक है क्योंकि पर्याय विनाशशील है। विश्व के दार्शनिकों द्रव्य स्वयं ही अपना कारण और स्वयं ही अपना कार्य की भी दृष्टि में आकाश नित्य है और दीपक क्षणिक होता है । कार्यकारण की यह परम्परा प्रत्येक द्रव्य में है। किन्तु जैन दृष्टि से दीपक से लेकर आकाश द्रव्य सदा प्रवर्तित रहती है। उसका अन्त नहीं होता । अतः तक सम-स्वाभावी हैं । द्रव्य रूप से दीपक भी नित्य है वस्तु को द्रव्यपर्यायात्मक कहा है क्योंकि द्रव्य के बिना और पर्याय रूप से आकाश भी क्षणिक है।
२७
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
इसी तरह एक ही समय में वस्तु एक भी है और एक का पिता और पुत्र होना परस्पर विरुद्ध जैसा अनेक भी है। पर्याय की अपेक्षा अनेक है क्योंकि वस्तु लगता है किन्तु वह अपने पिता का पूत्र और अपने पत्र प्रति समय परिणमनशील है और द्रव्य रूप से वस्तु एक का पिता है, अत: एक का पिता होने से वह सब का है। तथा एक ही समय में वस्तुभेद रूप भी और अभेद पिता या पुत्र नहीं होता। और न इन बहुत सम्बन्धों रूप भी है। द्रव्य रूप से अभेद रूप है और गुणों तथा का पुरुष के एकत्व के साथ विरोध है। इसी तरह पर्यायों के भेद से भेद रूप है। इस तरह वस्तु परस्पर अस्तित्व-नास्तित्व आदि धर्म भी एक वस्तु में निर्विरोध में विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक धर्मात्मक होने से रहते हैं। अनेकान्तात्मक है। अन्त शब्द धर्मवाचक है। यों तो सभी दार्शनिक वस्तु में अनेक धर्म मानते है। केवल दूसरा दृष्टान्त दिया है अन्धों और हाथी का। कुछ एक ही धर्म वाली कोई वस्तु नहीं है। किन्त जन अन्ध एक ही हाथी के एक-एक अंग को स्पर्श द्वारा दर्शन अपेक्षा भेद या दृष्टि भेद से एक ही वस्तु में ऐसे
जानकर अपने जाने हुए हाथी के एक अंग को ही हाथी अनेक धर्म मानता है जो परस्पर में विरुद्ध जैसे प्रतीत
मानकर परस्पर में झगड़ते हैं। तब एक दृष्टि सम्पन्न होते हैं-जैसे सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य,
व्यक्ति जिसने पूरा हाथी देखा है उन्हें समझाता है कि भेद-अभेद आदि। आचार्य समन्त भद्र ने अपने आप्त
तुमने हाथी का एक-एक अंग देखा है, वह असत्य नहीं मीमांसा प्रकरण में और आचार्य सिद्धसेन ने अपने
है । हाथी की सूड लट्ठ सरीखी होती है अतः हाथी सन्मति प्रकरण में इसकी व्यवस्थापना की है।
वैसा भी है। उसके पैर स्तम्भ जैसे होते हैं अतः हाथी
स्तम्भ जैसा भी है। इस तरह वह सबका समन्वय करके भकलंक देव ने अपनी अष्टशती में कहा है- पूर्ण हाथी उन्हें बतला देता है । इसी तरह वस्तु के सब
धर्मों का दर्शन अनेकान्त है और एक धर्म का दर्शन 'सदसन्नित्यानित्यादि सर्व थैकान्त प्रतिक्षेपल क्षणो
एकान्त है। यदि वह एकान्त अन्य धर्मों का निषेध न अनेकान्तः' । सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा नित्य,
करके उनकी सापेक्षता स्वीकार करता है तब वह एकान्त सर्वथा अनित्य इत्यादि सर्वथा एकान्त का प्रतिक्षेप...
सम्यक् है और यदि वह अपने को ही सम्यक् मानता है लक्षणवाला अनेकान्त है अर्थात् सर्बथा एकान्त का
और अन्य एकान्तों को असत्य ठहराता है तो वह निषेधक है किन्तु अपेक्षा भेद से एकान्त को स्वीकार
एकान्त मिथ्या है। अनेकान्तवादी जैन दर्शन सम्यक करता है। यदि एकान्त को सर्वथा न माना जाये तो
एकान्तों को स्वीकार करता है किन्तु मिथ्या एकान्तों अनेकान्त भी नहीं बन सकता क्योंकि एकान्तों का समूह
का खण्डन करता है। ही तो अनेकान्त है । कहा है
एक अनेकात्मक होता है यह प्रायः अन्य दर्शनों ने 'एयंतो एयणओ होइ अणेयंत तस्स समूहो' नयचक्र १८०।
भी माना है। साख्य दर्शन में सत्व, रज और तम की
साम्यावस्था को प्रधान कहा है। सत्त्वगुण का स्वभाव एक दृष्टि को एकान्त कहते हैं और उसका समूह प्रसाद और लाधव है । रजोगुण का स्वभाव शोष और अनेकान्त है। अनेकान्त को समझाने के लिये शास्त्रकारों ताप है। तमोगुण का स्वभाव आवरण और सादन है। ने दो लौकिक दृष्टान्त दिये हैं। एक ही पुरुष में पिता, इस प्रकार इन भिन्न स्वभाववाले गुणों का न तो पुत्र, पौत्र, मानेज, भाई आदि अनेक सम्बन्ध होते हैं। परस्पर में विरोध है और न प्रधान रूप से विरोध है एक ही समय में वह पिता भी होता है और पुत्र भो। क्योंकि सांख्य दर्शन में कहा है कि इन गुणों से भिन्न
२८
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोई अलग प्रधान नहीं है किन्तु साम्य अवस्था को प्राप्त वे ही गुण प्रधान नाम से कहे जाते हैं। अतः प्रधान के अवयव रूप गुणों का और उनके समुदाय रूप प्रधान का परस्पर में कोई विरोध नहीं है ।
1
वैशेषिक दर्शन में सामान्य को अनुवृति रूप और विशेष को व्यावृत्ति रूप माना गया है किन्तु पृथिवीश्व आदि को सामान्य विशेष रूप स्वीकार किया है। एक ही पृथिवीश्व अपने भेदों में अनुगत होने से सामान्य रूप और जलादि से व्यावृत्ति कराने से विशेष रूप माना गया है, इसी से उसे सामान्य विशेष कहा गया है।
विज्ञानाईतवादी एक ही विज्ञान को ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और संवेदनाकार इस प्रकार तीन आकार रूप स्वीकार करते हैं । तथा सभी दार्शनिक पूर्व अवस्था को कारण और उत्तर अवस्था को कार्य स्वीकार करते हैं। अतः एक ही पदार्थ में अपनी पूर्व और उत्तर पर्याय की दृष्टि से कारण और कार्य का व्यवहार निर्विरोध होता है । उसी तरह सभी पदार्थ विभिन्न अपेक्षाओं से अनेक धर्मवाले होते हैं । इसे ही अनेकान्त कहते हैं ।
इस अनेकान्तवाद का खण्डन बादरायण के सूत्र 'नैकस्मिन्नसंभवात्' (2/5/33) में मिलता है। इसकी व्याख्या में स्वामी शंकराचार्य ने अनेकान्तवाद पर जो सबसे बड़ा दूषण दिया है वह है 'अनिश्चितता' । उनका कहना है कि 'वस्तु है और नहीं भी है ऐसा कहना अनिश्चितता को बतलाता है । और अनिश्चितता संशय को पैदा करती है । किन्तु ऊपर स्पष्ट किया गया है कि वस्तु स्वरूप से सत् है और पर रूप से असत् है । यह निश्चित है – इसमें अनिश्चितता को स्थान नहीं है। देवयत्त पिता भी है और पुत्र भी है, इसमें जैसे कोई अनिश्चितता नहीं है क्योंकि वह अपने पुत्र की अपेक्षा पिता और अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है, उसी तरह वस्तु सत् भी है और असत् भी, इसमें कोई
-
अनिश्चितता नहीं है क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्वरूप से सत् और पर रूप से असत् होती है यह निश्चित है। इसके बिना वस्तु व्यवस्था नहीं बनती वस्तु का वस्तुत्व दो मुद्दों पर स्थापित है-स्वरूप का ग्रहण और पर रूपों का त्याग। यदि इनमें से एक भी मुद्द े को अस्वीकार किया जाय तो वस्तु का वस्तुत्व कायम नहीं रह सकता । यदि वस्तु का अपना कोई स्वरूप न हो तो बिना स्वरूप के वह वस्तु नहीं हो सकती । इसी तरह स्वरूपकी तरह यदि वह पर रूप को भी अपना ले तो भी उसकी अपनी स्थिति नहीं रहती । वह तो सर्वात्मक हो जायेगी।
स्याद्वाद
पुत्र
इस प्रकार जब वस्तु परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्मों का समूह है तो उसको जानना उतना कठिन नहीं है जितना उसे कहना कठिन है क्योंकि एक ज्ञान अनेक धर्मात्मक वस्तु को एक साथ जान सकता है किन्तु शब्द के द्वारा एक समय में वस्तु के एक ही धर्म को कहा जा सकता है। उस पर भी शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के अधीन है। बक्ता वस्तु के अनेक धर्मो में से किसी एक धर्म को मुख्य करके बोलता है । जैसे देवदत्त को उसका पिता पुत्र कहकर बुलाता है और पिता कहकर पुकारता है। किन्तु देवदत न केवल पिता है और न केवल पुत्र है। वह तो दोनों है । किन्तु पिता की दृष्टि से देवदत्त का पुत्रत्व धमं मुख्य है और पुत्र की दृष्टि से पितृत्व धर्म मुख्य है। शेष धर्म गौण है क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तु के जिस धर्म की विवक्षा होती है वह धर्म मुख्य और शेष धर्म गौण होते हैं। अतः वस्तु के अनेक धर्मात्मक होने और शब्द में एक समय में उन सब धर्मों को कहने की शक्ति न होने से तथा बक्ता का अपनी-अपनी दृष्टि से वचन व्यवहार करते देखकर, वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझने में श्रोता को कोई धोखा न हो, इसलिये अनेकान्तवाद में से स्याद्वाद का आविष्कार हुआ।
२६
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यों ने अनेकान्तात्मक अर्थ के कथन को किन्तु लोक में और शास्त्र में प्रत्येक पद और स्याद्वाद कहा है। 'स्याद्वाद' के अनुसार वक्ता वस्तु के प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् पद का प्रयोग तो नहीं जिस धर्म को कहता है उससे इतर शेष धर्मों का सूचक देखा जाता । तब उसके बिना अनेकान्त की प्रतिपत्ति 'स्यात्' शब्द समस्त वाक्यों के साथ प्रकट या अप्रकट कैसे हो सकती है ? इसके उत्तर में आचार्य विद्यानन्द रूप से सम्बद्ध रहता है जो बतलाता है कि वस्तु में ने कहा है-स्यात् पद का प्रयोग नहीं होने पर भी केवल वही धर्म नहीं है जो कहा जा रहा है किन्तु उसको जाननेवाले उसे समझ लेते हैं। उसके सिवाय अन्य भी धर्म है। 'स्यात्' शब्द का अर्थ 'कथञ्चित्' या किसी 'अपेक्षा से' है ।
___ कोई-कोई आधुनिक विद्वान शायद को स्यात् का
स्थानापन्न समझते हैं किन्तु यह ठीक नहीं है। 'शायद' आचार्य समन्तभद्र ने कहा है
शब्द तो सन्देह को व्यक्त करता है किन्तु 'स्यात्' शब्द
सन्देहपरक नहीं है। वह केवल इस बात का सूचक या स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात किंवत्तचिद्विधिः। द्योतक है कि वक्ता विवक्षावश वस्तु के जिस धर्म
को कहता है वस्तु में केवल वही एक धर्म नहीं है अन्य सप्तभंगनयापेक्षो हेयादेय विशेषकः ।।
भी प्रतिपक्षी धर्म हैं।
-आप्तमीमांसा-१०४।
उपयोग
अर्थात् 'कथञ्चित्' कथञ्चन आदि स्याद्वाद के यह स्याद्वाद या अपेक्षावाद न केवल दार्शनिक पर्याय हैं, स्याद्वाद को कहते हैं। यह स्याद्वाद अनेकान्त क्षेत्र में ही उपयोगी है किन्तु लोकव्यवहार भी उसके को विषय करके सात भंगो और नयों की अपेक्षा से बिना नहीं चलता । इसके लिये दो लौकिक दृष्टान्त स्वभाव और परभाव से सत् असत् आदि की व्यवस्था ऊपर दिये गये हैं। यह अनेकान्तवाद की देन है और का कथन करता है।
एक वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखनेवाले विभिन्न
व्यक्तियों में सामन्जस्य स्थापित करना इसका काम है। अतः वाक्य के साथ प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द प्रकृत प्रत्येक व्यक्ति अपने ही दृष्टिकोण को उचित और दूसरों के अर्थ के धर्मों को पूर्ण रूप से सूचित करता है । इस तरह दृष्टिकोण को गलत मानता है । यदि वह अपने दृष्टिकोण अकलंक देव के अभिप्राय से 'स्यात्' शब्द अनेकान्त का की तरह दूसरे दृष्टिकोणों को भी सहानुभूतिपूर्वक अपनाये सूचक है और उनके व्याख्याकार आचार्य विद्यानन्द के तो पारस्परिक विवाद समाप्त हो जाता है। यद्यपि अभिप्राय से अनेकान्त का द्योतक भी है क्योंकि निपात अनेकान्तवाद और स्याद्वाद दार्शनिक क्षेत्र की देन है योतक भी होते हैं। यदि केवल 'स्यात' शब्द का प्रयोग और इनका उपयोग भी दार्शनिक क्षेत्र के विवादों को किया जाये तो अनेकान्त सामान्य की ही प्रतिपत्ति सुलझाने में ही हुआ है । आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीहोती है, अतः उसके साथ जीव आदि पद का प्रयोग मांसा में दो विरोधी एकान्तवादों में दोष दिखाकर यह किया जाता है यथा 'स्यात् जीव' अर्थात् कथंचित बताने का सफल प्रयत्न किया है कि यदि इनका समन्वय
-au की अपेक्षा जीव है तथा पररूप की स्याद्वाद के द्वारा किया जाता है तो ये विरोधी वाटी अपेक्षा जीव नहीं है। स्यात् शब्द के बिना अनेकान्त अविरुद्ध हो जाते हैं । भावकान्त अभावैकान्त, नित्यकान्त अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती।
अनित्यकान्त, भेदैकान्त अभेदैकान्त, अद्वेतकान्त द्वत
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________ कान्त, आदि सभी विरोधी एकान्तबादों का जब है। अतः अहिंसा का ही एक नाम अनेकान्त और समन्वय संभव है तब कौनसी समस्या इसके द्वारा हल स्याद्वाद है यदि ऐसा कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं नहीं की जा सकती। किन्तु उसका प्रयोग करने की है। इसे हम सत्याग्रह भी कह सकते हैं क्योंकि अनेकान्ती आवश्यकता है। इसके लिये मूल में महावीर की सत्य के प्रति आग्रही होता है। जो सत्य है वह अनेअहिंसक भावना होना आवश्यक है। अहिंसक भावना कान्त रूप है और जो अनेकान्त रूप है वही सत्य है। की ही देन अनेकान्त और स्याद्वाद है / विचार के क्षेत्र अनेकान्त दृष्टि के बिनासत्य तक पहुँचना संभव नहीं में जो हिंसा का ताण्डव होता था उसे मिटाने के लिये है। अतः सत्य के खोजी को अनेकान्त दृष्टि से सम्पन्न ही अनेकान्त और स्याद्वाद का सर्जन हुआ। इनके बिना होना चाहिये तभी वह सत्य इष्टा हो सकता है। विचार के क्षेत्र में प्रवर्तित हिंसा का मिटना अशक्य