Book Title: Mahavir Jivan aur Darshan Author(s): Kailashchandra Shastri Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 1
________________ भगवान महावीर, जिनके निर्वाण की पच्चीसवीं रजत शती की पूर्ति के अवसर पर सर्वत्र महोत्सव मनाये गये हैं, जैन धर्म के अन्तिम तीर्थकर थे । और प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे । भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती थे । उन्हीं के नाम से यह देश भारतवर्ष कहलाया । जब भगवान ऋषभदेव को पूर्णज्ञान की प्राप्ति हुई और उन्होंने अपने उपदेश में कहा कि मेरे पश्चात् तेईस तीर्थंकर और होंगे तो किसी ने प्रश्न किया - क्या यहाँ उपस्थित जन समुदाय में कोई ऐसा व्यक्ति है जो भविष्य में तीर्थंकर होनेवाला है ? भगवान ने उत्तर दिया- भरत का पुत्र मरीचि अन्तिम तीर्थंकर होगा । यह बात मरीचि ने भी सुनी। और भगवान की वाणी अन्यथा नहीं हो Jain Education International भगवान महावीर जीवन और दर्शन - पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री सिद्धान्ताचार्य सकती, इस विश्वास के आधार पर अपना तीर्थंकरत्व सुनिश्चित जान वह मदमत्त हो उठा। और उसने अपने कर्मानुसार अनेक गतियों में भ्रमण किया । प्राचीन जैन आगमों में भगवान महावीर के पूर्वजन्मों का इतिवृत्त विस्तार से वर्णित है। एक बार वह सिंह की पर्याय में एक मृग पर झपटते हैं। उधर से जाते हुए मुनिराज की दृष्टि उन पर पड़ती है। अपने ज्ञान से यह जानकर कि यह जीव भविष्य में तीर्थंकर होनेवाला है, वे उसे सम्बोधते हैं और यहीं से उनके जीवन का उत्थान प्रारम्भ होता है, और अन्त में वह वैशाली के राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला के गर्भ में अवतरित होकर महावीर के रूप में जन्म लेते हैं । और 28 वर्ष की युवावस्था में प्रब्रजित होकर 12 वर्ष तक कठोर साधना के द्वारा पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके तीर्थंकर होते हैं और सर्वत्र विहार करके अपने धर्म का उपदेश करते हैं । अन्त में बिहार प्रान्त के ही पावानगर में उनका निर्वाण होता है । उसी के उपलक्ष में जैन शास्त्रों में दीपावली का त्यौहार प्रवर्तित होने का उल्लेख मिलता है । यतः भगवान महावीर का निर्वाण अमावस्या को ब्राह्म मुहूर्त में हुआ था, अतः अन्धकार दूर करने के लिये दीपक जलाये गये थे । वे भगवान के ज्ञानदीप के प्रतीक भी थे । भगवान महावीर का यह जीवनदर्शन उनके दर्शन का भी परिचायक है । भगवान महावीर के दर्शन में अवतारवाद को स्थान नहीं है २५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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