Book Title: Mahasati Madanrekha Diwakar Chitrakatha 012
Author(s): Shreechand Surana
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 34
________________ सती मदनरेखा साध्वी सुव्रता के बहुत आग्रह करने पर नमिराज ने कहा हमारे पट्ट हस्ती को सुदर्शन पुर के राजा चन्द्रयश ने बंदी बना लिया है। हम अपना हाथी वापस लेना चाहते हैं वह देता नहीं, बस यही युद्ध का कारण है। साध्वी सुव्रता ने मुस्कराते हुए कहा- राजन ! क्या हजारों मनुष्यों के रक्त से भी एक हाथी का महत्व अधिक है ? नमिराज-आर्या जी ! यह हाथी के महत्व का प्रश्न नहीं है किन्तु राजनीति की प्रभुसत्ता का प्रश्न है। साध्वी सुव्रता–क्या छोटे भाई की कोई वस्तु बड़ा भाई ले लेवे तो इसके लिए युद्ध किया जाता है ? नमिराज उत्तेजित होकर बोले - आर्या जी ! आप इस युद्धभूमि में व्यर्थ के प्रश्न नही करें तो अच्छा है, मैं नहीं समझ पा रहा हूँ यहाँ छोटा भाई- बड़ा भाई का क्या प्रसंग है ? साध्वी सुव्रता- राजन ! यही तो सचमुच अज्ञान है। और अज्ञान ही सब अनर्थों की जड़ है। आप नही जानते जिस राजा चन्द्रयश के साथ आप घनघोर युद्ध कर रहे हैं वह आपका सगा बड़ा भाई है। नमिराज उत्तेजित हो उठे - आर्या जी ! आप सत्यव्रत धारिणी हैं ये बेसिर-पैर की बाते आपके मुख से शोभा नहीं देती। फिर मैं तो राजा पद्मरथ का इकलौता पुत्र हूँ। मेरा कोई भी भाई नहीं। मेरी माता ने एक ही सन्तान को जन्म दिया है। साध्वी सुव्रता - ( हंसकर ) राजन ! आप जो जानते हैं वह सत्य नहीं है और जो सत्य है उस को आप नहीं जानते हैं। यही आपका अज्ञान है। आप विश्वास रखें-निर्ग्रन्थ श्रमणी कभी असत्य नही बोलती । नमिराज - फिर सत्य क्या है ? क्या आप जानती है मेरे माता-पिता कौन है ? साध्वी सुव्रता-हाँ, अभी यही बात कहने को यहाँ आई हूँ। आप राजा पद्मरथ के नहीं किन्तु सुदर्शनपुर के स्वर्गीय राजा युगबाहू के द्वितीय पुत्र हैं, चन्द्रयश आपका भाई है। नमिराद - मेरी माता कौन है ? साध्वी सुव्रता- आपके सामने खड़ी है। मेरी आँखों में देखिए क्या आपको इन आँखों में माता की ममता का अहसास नहीं हो रहा है ? क्या मेरी वाणी वत्सलता ने आपके हृदय को नहीं छूआ ? नमिराज़ अवाक् खड़े साध्वी सुव्रता जी को देखते रहे । साध्वी जी ने अतीत की समूची घटना नमिराज को सुनाई। वह माता के चरणों में झुक गया। और बड़े भाई से मिलने को आतुर हो उठा। साध्वी सुव्रता जी ने कहा- अभी उतावला न हो, पहले मैं राजा चन्द्रयश के पास जाती हूँ। साध्वी सुव्रता जी ने सुदर्शन पुर के द्वार रक्षकों के साथ महाराज चन्द्रयश के पास सूचना भेजी - आपकी माताश्री मदनरेखा आप मिलना चाहती हैं। सूचना मिलते ही चन्द्रयश दौड़कर आया। माता को साध्वी वेश में देखकर वह पहले चकित हुआ । फिर सारी घटना सुनकर स्वयं ही भाई नमिराज से मिलने के लिए दौड़ पड़ा। युद्धभूमि अब भाई-भाई के प्रेम मिलन की भूमि गई। साध्वी सुव्रता जी के सामयिक उपदेशों ने भयंकर नर-संहार को रोक दिया और दो देशों की प्रजा में प्रेम एवं शान्ति की गंगा बह उठी । अन्त में चन्द्रयश ने नमिराज को सुदर्शन पुर का राज्य सोंप कर स्वयं दीक्षा ग्रहण कर ली। नमिराज बहुत वर्षों तक प्रतापी सम्राट के रूप में राज करते रहे। एकबार उनके शरीर में दाध ज्वर उत्पन्न हुआ, विबिध उपचारों से भी शान्त नहीं हुआ। शरीर पर चन्दन लेप के लिए रानियाँ चन्दन घिस रही थी, उनके कंगनों की खट-खट ध्वनि से नमिराज को बैचेनी हुई। तो हाथ में एक एक कंगन रखकर रानियाँ चन्दन घिसने लगी। नमिराज के पूछने पर कि अब आवाज क्यों नहीं आ रही है । रानियों ने कहा- अकेला कंगन आवाज नहीं करता । बस इसी संकेत पर चिन्तन करते हुए नमिराज का अन्तःकरण जागृत हो गया। “अकेले में ही शान्ति है। दो के संपर्क से ही अशान्ति पैदा होती है।" इसी चिन्तन में नमिराज लीन हो गये। दाध ज्वर शान्त हो गया और वे राजपाट त्यागकर एकाकी संयम पथपर चल पड़े। उत्तराध्ययन सूत्र के नमिपव्वज्जा अध्ययन में नमिराज और इन्द्र महाराज के सुन्दर वैराग्य पूर्ण प्रश्नोत्तर उनकी वैराग्य गाथा को प्रकाशित कर रहे हैं। Jain Education International For Private & Sonal Use Only 32 www.jainelibrary.org

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