Book Title: Mahamantra Namokar Vaigyanik Anveshan
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Megh Prakashan

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Page 10
________________ ...98 हिंसा अन्त तसकरी, अब्रह्म परिग्रह पाप। मनवचनतें त्यागवो, पंच महावत थाप ।। ईर्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण आदान । प्रतिष्ठापनाजुत क्रिया, पांचों समिति विधान ॥ सपरस. रसना नासिका, नयन श्रोत्रका रोध । षठ आवशि मंजन तजन, शयन भूमि का शोध ।। वस्त्र त्याग केशलोंच अरु, लघु भोजन इकबार । दांतन मुख में ना करें, ठाड़े लेहि आहार ॥ साधर्मी भवि पठन को, इष्ट छतीसी ग्रन्थ । अल्प बुद्धि बुधजन रच्यो, हितमित शिवपुर पंथ ॥ श्रद्धा के साथ आवश्यक है भावना की शुद्धि । णमोकार मन्त्र जपते समय मन में बुरे विचार, अशुभ संका और विकार नहीं आने चाहिए। मन की पवित्रता से हम मन्त्र का प्रभाव शीघ्र अनुभव कर सकेंगे। मन जब पवित्र होता है तो उसे एकाग्र करना भी संहज हो जाता है। भक्ति में शक्ति जगाने के लिए समय की नियमितता और निरन्तरता मावश्यक है। मन्त्रपाठ नियमित और निरन्तर होने से ही वह चमत्कारी फल पैदा करता है। हां, यह जरूरी है कि जप के साथ शब्द और मन का सम्बन्ध जुड़ना चाहिए। पातंजल योग दर्शन में कहा है-तज्जपस्तदर्थभावनम् -जप वही है, जिसमें अर्थभावना शब्द के अर्थ का स्मरण, अनुस्मरण, चिन्तन और साक्षात्कार हो। जप-साधना में सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, चित्त की प्रसन्नता। जप करने का स्थान साफ, स्वच्छ होना चाहिए। आसपास का वातावरण शान्त हो, कोलाहलपूर्ण नहीं हो। जिस आसन पर या स्थान पर जप किया जाता है, वह जहां तक सम्भव हो, नियत, निश्चित होना चाहिए। स्थान को बार-बार बदलना नहीं चाहिए। सीधे जमीन पर बैठकर जाप करना उचित नहीं माना जाता। साधना, ध्यान आदि के समय भूमि और शरीर के बीच कोई आसन होना जरूरी है। सर्वधर्म कार्य सिद्ध करने के लिए दर्भासन (दाभ, कुशा) का आसन उत्तम माना जाता है। पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके साधना-ध्यान करना चाहिए । पद्मासन या सिद्धासन जप का सर्वोत्तम आसन है। जप के लिए ऐसा समय निश्चित करना चाहिए जब साधक शान्ति और निश्चितता के साथ बैठ सके। भाग-दौड़ का समय जप के लिए उचित नहीं होता, इससे व्यर्थ ही मानसिक तनाव और उतावली बनी रहती है। जिस कारण ध्यान में मन नहीं लगता। एकान्त में, भालस्यरहित होकर शान्त मन से मन-ही-मन जा करना चाहिए।

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