Book Title: Madhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Author(s): Rajesh Jain Mrs
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 7
________________ मेदपाट, प्राग्वाट, बागड़, पारियात्र, शतपंचाशत, मरू, अबुददेश और अष्टादश शतदेश, माड, वल्ल त्रवणी, दशेरक, गुर्जर या गुर्जरात्र आदि नामों से अभिहित थे। इसी काल में मुसलमानों के विध्वंसक आक्रमणों के प्रारम्भ होने से, राजपूत जातियों की वीरता व उदारता से सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होकर, बहुसंख्यक जन समुदाय इन प्रदेशों में विस्थापित होकर आये एवं नये नगर, राजधानियाँ व व्यापारिक केन्द्र विकसित हुये। इस दौरान राजपूत वंशों की विभिन्न शाखाएँ अपने छोटे-छोटे राज्य स्थापित करने के लिये निरन्तर संघर्ष करतो रहीं । १३वीं शताब्दी से ही, देश में केन्द्रीय मुस्लिम सत्ता के न्यूनाधिक रूप से स्थिरता प्राप्त कर अस्तित्व में आने के व्यापक सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक प्रभाव हुये। राजस्थान प्रदेश में, विभिन्न राजपूत वंशों की शाखाओं के द्वारा स्वतंत्र रूप से छोटी रियासतों की स्थापना व नई राजधानियों का निर्माण किया जाने लगा। १८वीं शताब्दी तक इस प्रकार के कई राजपूत राज्य, जैसे—मेवाड़, सिरोही, जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, अजमेर, बून्दी, कोटा, भरतपुर, अलवर आदि अस्तित्व में आ गये थे। केन्द्रिीय मुगल सत्ता में भी लम्बे संघर्ष, रक्तपात व हिंसा के पश्चात् अकबर के काल तक स्थिरता आ गई थी। अकबर की धर्मसहिष्णु नीति व अन्य धर्मों के प्रति आदर भाव से सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व जन जीवन के विविध क्षेत्रों में शान्ति, स्थिरता और विकास का वातावरण बन गया था, किन्तु कट्टर व धर्मान्ध मुस्लिम शक्तियाँ अन्दर ही अन्दर सुलग रही थीं। अकबर की मृत्यु के उपरान्त १७वीं शताब्दी से ही कट्टर मुस्लिम शक्तियाँ केन्द्रीय सत्ता पर हावी होने लगी जिसकी परिणति व पराकाष्ठा औरंगजेब के सत्ता में आने पर हुई। औरंगजेब की अत्यधिक कट्टरता, धर्मान्धता और भूमिज धर्मों के प्रति घृणा, मुगल साम्राज्य के पतन व अवसान में प्रतिफलित हुई। अतः १७वीं शताब्दी में मुस्लिम विध्वंसक शक्तियों में उफान आया, जिसके सामाजिक व धार्मिक क्षेत्र में अत्यधिक प्रभाव हये। राजस्थान में इस काल में मराठों व पिंडारियों ने भी बहुत उत्पात मचाये । पूर्वी व दक्षिण-पूर्वी राजस्थान का अधिकांश भाग औरंगजेब, मराठों आदि विध्वंसक शक्तियों के मार्ग में होने के कारण अपूर्व क्षति का केन्द्र रहा, जिसके प्रमाण इन क्षेत्रों में विस्तृत रूप से बिखरे हुये भग्नावशेष हैं । परवर्ती शताब्दियों में राजपूतों के इस प्रदेश में सुस्थापित हो जाने के पश्चात्, स्थानीय भाषा में यह भप्रदेश "राजवाड़ा" व "रायथान' कहलाता था । अंग्रेजों ने इस भौगोलिक प्रदेश को "राजपूताना'' नाम दिया व स्वतंत्र भारत में यह "राजस्थान' के नाम से अभिषिक्त किया गया। ८वीं से १८वीं शताब्दी तक राजस्थान में मध्यकालीन जैन धर्म का अध्ययन, प्रदेश की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि परिस्थितियों पर विचार करते हुये, ३ कालखण्डों में विभक्त किया गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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