Book Title: Madhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Author(s): Rajesh Jain Mrs
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 6
________________ 1851 लेखकीय ८वीं से १८वीं शताब्दी तक मध्यकालीन राजस्थान की सांस्कृतिक धारा में, जैन धर्म एक महत्त्वपूर्ण क्रियाशील धार्मिक शक्ति रहा है । जीवन के शाश्वत सत्य को पहिचानने और मनसा, वाचा, कर्मणा उसे जीवन लक्ष्यों में समादृत और समाहित करते रहने का जो महत्त्वपूर्ण कार्य जैन धर्म ने निष्पादित किया है, वह किसी भी धर्म के लिये एक आदर्श है । राजस्थान की धरती की गन्ध लिये, यहाँ के सांस्कृतिक सौष्ठव की सभी विशेषताओं को आवेष्ठित कर, जैन धर्म ने एक ऐसी सांस्कृतिक भूमिका का निर्वाह किया है, जो प्रत्येक काल में चिरस्मरणीय रहेगी । उदारमना राजपूत शासकों ने, शैव व वैष्णव धर्मी होते हुए भी, कर्तव्यनिष्ठ जैन राजनयिकों, सद्गुणी एवं विद्वान् जैनाचार्यों, धनपति श्रेष्ठियों एवं लोकमानस में जैनमत की लोकप्रियता से प्रभावित होकर, जैन धर्म के संरक्षण, संवर्द्धन एवं उत्कर्ष में गहन अभिरूचि प्रदर्शित कर प्रशंसनीय योगदान दिया । राजस्थान का भौगोलिक दृष्टि से अपना अलग ही वैशिष्ट्य है, जिसका प्रभाव आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक यहाँ तक कि धार्मिक क्षेत्र में भी देखने को मिलता है । २३° ३' उत्तर से ३०° १२' उत्तरी अक्षांश और ६९°३०' पूर्व से ७८°१७' पूर्वी देशान्तर के मध्य विस्तृत इस प्रदेश का क्षेत्रफल ३,४२, २७४ वर्ग कि० मी० है । यह पूर्व में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दक्षिण में गुजरात, पश्चिम में पाकिस्तान तथा उत्तर व उत्तर पूर्व में पंजाब व हरियाणा से घिरा हुआ है । गुजरात के चांपानेर से, उत्तर-पूर्वी दिशा में दिल्ली तक विस्तृत अरावली पर्वत श्रृंखला, यहाँ की प्रमुख भू-आकृतिक विशेषता है । इस पर्वत श्रृंखला के उत्तर-पश्चिम में प्रदेश का ३ / ५ भाग मरुस्थलीय है । राजस्थान में बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, भीलवाड़ा, अजमेर, जयपुर, भरतपुर, बून्दी, कोटा आदि ऐसे क्षेत्र हैं, जो अपेक्षाकृत पठारी, उपजाऊ, सघन वनस्पति वाले व जल सुविधाओं से सम्पन्न हैं । राजस्थान का राजनैतिक स्वरूप व नामकरण, युगानुरूप परिवर्तित होता रहा है । लगभग ७वीं शताब्दी से इस प्रदेश में गुर्जर प्रतिहार, चौहान, चालुक्य, परमार, गुहिल आदि राजपूत जातियों ने अपने प्रभाव क्षेत्र व सत्ता केन्द्र स्थापित करना प्रारम्भ किये, जिसके परिणाम स्वरूप तत्कालीन राज्य शक्तियों के केन्द्र, अन्य प्रदेशों से हटकर इस भू-प्रदेश में संकेन्द्रित होने लगे । ८वीं से १२वीं व १३वीं राजपूत शक्तियों द्वारा स्थापित परिवर्तनशील सीमाओं वाले ये साहित्यिक प्रमाणों के अनुसार — जांगलदेश, सपादलक्ष, अनन्त, सप्तशतभूमि, भादानक, Jain Education International For Private & Personal Use Only शताब्दी तक, विभिन्न प्रदेश, अभिलेखीय एवं www.jainelibrary.org

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