Book Title: Madhya Bharat ka Jain Puratattva Author(s): Parmanand Jain Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 3
________________ ७०० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय बुन्देलखण्ड में चन्देल और कलचूरी आदि राजाओं के शासनकाल में जैनधर्म का प्रभाव सर्वत्र व्याप्त रहा है, और उस समय अनेक कलापूर्ण मूत्तियां तथा सैकड़ों मन्दिरों का निर्माण भी हुआ है. खजुराहो की कला तो इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती ही है. यद्यपि खजुराहो में कितनी ही खण्डित मूर्तियां पाई जाती हैं, जो साम्प्रदायिक विद्वेष का परिणाम जान पड़ती हैं. यहाँ मन्दिरों के तीन विभाग हैं. पश्चिमी समूह शिव-विष्णु-मन्दिरों का है. इनमें महादेव का मन्दिर ही सबसे प्रधान है और उत्तरीय समूह में भी विष्णु के छोटे बड़े मन्दिर हैं. दक्षिण-पूर्वीय भाग जैन मन्दिरों के समूह से अलंकृत है. यहां महादेवजी की एक विशाल मूत्ति ८ फुट ऊंची और तीन फुट से अधिक मोटी होगी. वराह अवतार भी अतीव सुन्दर है. उसकी ऊँचाई सम्भवतः ३ हाथ होगी. वंगेश्वर मंदिर भी सुन्दर और उन्नत है, काली का मन्दिर भी रमणीय है, पर मूत्ति में माँ की ममता का अभाव दृष्टिगत होता है, उसे भयंकरता से आच्छादित जो कर दिया है, जिससे उसमें जगदम्बा की कल्पना का वह मातृत्व रूप नहीं रहा. और न दया क्षमा ही को कोई स्थान प्राप्त है, जो मानवजीवन के खास अंग हैं. वहाँ के हिन्दूमन्दिर पर जो निरावरण देवियों के चित्र उत्कीर्ण देखे जाते हैं उनसे ज्ञात होता है कि उस समय विलासप्रियता का अत्यधिक प्रवाह बह रहा था. इसी से शिल्पियों की कला में भी उसे यथेष्ट प्रश्रय मिला है. खजुराहो की नन्दी मूर्ति दक्षिण के मन्दिरों में अंकित नन्दी मूर्तियों से बहुत कुछ साम्य रखती है. यद्यपि दक्षिण की मूर्तियां आकार-प्रकार में कहीं उससे बड़ी हैं. वर्तमान में यहां तीन ही हिन्दू मन्दिर और तीन ही जैन मन्दिर हैं. उनमें सबसे प्रथम मंदिर घंटाई का है. यह मन्दिर खजुराहा ग्राम की ओर दक्षिण पूर्व की ओर अवस्थित है, इसके स्तम्भों में घण्टियों की बेल बनी हुई है. इसी से इसे घण्टाई का मन्दिर कहा जाता है. इस मन्दिर की शोभा अपूर्व है. दूसरा मन्दिर आदिनाथ का है. यह मन्दिर घण्टाई मन्दिर के हाते में दक्षिण उतर-पूर्व की ओर अवस्थित है. यह मंदिर भी रमणीय और दर्शनीय है. इस मन्दिर में पहले जो मूल नायक की मूर्ति स्थापित थी वह कहाँ गई, यह कुछ ज्ञात नहीं होता. तीसरा मन्दिर पार्श्वनाथ का है. यह मन्दिर सब मन्दिरों से विशाल है. इसमें पहले आदिनाथ की मूर्ति स्थापित थी, उसके गायब हो जाने पर इसमें पार्श्वनाथ की मूत्ति स्थापित की गई है. इस मन्दिर की दीवालों के अलंकरणों में वैदिक देवताओं की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं. यह मन्दिर अत्यन्त दर्शनीय है और संभवतः दशवीं शताब्दी का बना हुआ है. इसके पास ही शांतिनाथ का मन्दिर है. इन सब मन्दिरों के शिखर नागर शैली के बने हुए हैं. और भी जहां तहां बुदेलखण्ड में मंदिरों के शिखर नागर शैली के बने हुए मिलते हैं. ये मंदिर अपनी स्थापत्यकला, नूतनता और विचित्रता के कारण आकर्षक हैं. यहां की मूत्तिकला, अलंकरण और अतुल रूपराशि मानव-कल्पना को आश्चर्य में डाल देती है. इन अलंकरणों एवं स्थापत्य कला के नमूनों में मंदिरों का बाह्य और अन्तर्भाव-विभूषित है. जहां कल्पना में सजीवता, भावना में विचित्रता तथा विचारों का चित्रण, इन तीनों का एकत्र संचित समूह ही मूर्तिकला के आदशों का नमूना है, जिननाथ मन्दिर के बाह्य द्वार पर संवत् १०११ का शिलालेख अंकित है, जिससे ज्ञात होता है कि यह मंदिर चन्देल राजा धंग के राज्यकाल से पूर्व बना है. उस समय मुनि वासवचन्द के समय में पाहलवंश के एक व्यक्ति पाहिल ने, जो घंगराजा के द्वारा मान्य था, उसने मंदिर को एक बाग भेंट किया था जिसमें अनेक वाटिकाएँ बनी हुई थीं.' शान्तिनाथ का मन्दिर-इस मन्दिर में एक विशाल मूत्ति जैनियों के १६वें तीर्थंकर भगवान् शान्तिनाथ की है, जो १४ फट ऊँची है. यह मुत्ति शान्ति का प्रतीक है, इसकी कला देखते ही बनती है. मुर्ति सांगोपांग अपने दिव्य प्रशान्त रूप में स्थित है, और ऐसी ज्ञात होती है कि शिल्पी ने अभी बनाकर तैयार की हो. मूर्ति कितनी चित्ताकर्षक है यह लेखनी से परे की बात है. शिल्पी की बारीक छैनी से मूर्ति का निखरा हुआ वह कलात्मक रूप दर्शक को आश्चर्य में डाल देता १. ओं (iix) संवत् १०११ समये । निजकुल धवलोयं दि Jain Ed orgPage Navigation
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