Book Title: Madhya Bharat ka Jain Puratattva Author(s): Parmanand Jain Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 2
________________ परमानन्द जैन : मध्यभारत का जैन पुरातत्व : ६६६ गंभीर विचार और बारीक छैनी का आभास उसके प्रत्येक अंग से परिलक्षित होता है. इसी तरह देवगढ़ का विष्णुमन्दिर भी गुप्तकालीन कला का सुन्दर प्रतीक है और भी अनेक कलात्मक अलंकरणों का यत्र तत्र संकेत मिलता है, जो तत्कालीन कला की मौलिक देन है. इस तरह उक्त तीनों ही सम्प्रदायों की पुरातात्त्विक सामग्री का अस्तित्त्व जरूर रहा है, परन्तु वर्तमान में वह विरल ही है. मध्यप्रदेश के पुरातात्त्विक स्थान और उनका संक्षिप्त परिचय मध्यप्रदेश के खजुराहा, महोवा, देवगढ़, अहार, मदनपुर, बाणपुर, जतारा, रायपुर, जबलपुर, सतना, नवागढ़, ग्वालियर, भिलसा, भोजपुर, मऊ, धारा, बडवानी और उज्जैन आदि पुरातत्त्व की सामग्री के केन्द्रस्थान हैं. इन स्थानों की कलात्मक वस्तुएँ चन्देल और कलचूरी कला का निदर्शन करा रही हैं. यद्यपि मध्यप्रदेश में जैन शास्त्रभंडारों के संकलन की विरलता रही है. ५-७ स्थान ही ऐसे मिलते हैं जहाँ अच्छे शास्त्रभंडार पाए जाते हैं. यद्यपि प्रत्येक मन्दिर में थोड़े बहुत ग्रन्थ अवश्य पाये जाते हैं पर अच्छा संकलन नहीं मिलता. इसका कारण यह है कि वहां भट्टारकीय परम्परा का प्रभाव अधिक नहीं हो पाया है. जहाँ-जहाँ भट्टारकीय गद्दियां और उनके विहार की सुविधा रही है वहां वहाँ अच्छा संग्रह पाया जाता है. प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों का जैसा संकलन राजस्थान, गुजरात, दक्षिण भारत तथा पंजाब के कुछ स्थानों में पाया जाता है वैसा मध्य प्रदेश में नहीं मिलता. मध्य प्रदेश के जिन कतिपय स्थानों के नामों का उल्लेख किया गया है उन में से कुछ स्थानों का यहाँ संक्षिप्त परिचय देना ही इस लेख का विषय है. यद्यपि मालव प्रान्त भी किसी समय जैन धर्म का केन्द्रस्थल रहा है, और वहां अनेक साधु-सन्तों और विद्वानों का जमघट रहा है। खासकर विक्रम की १० वीं शताब्दी से १३ वीं शताब्दी तक वहां दि० जैन साधुओं आदि का अध्ययन, अध्यापन तथा विहार होता रहा है, और वहाँ अनेक ग्रन्थों की रचना की गई है. साथ ही अनेक प्राचीन उत्तुंग मंदिर और मूर्तियों का निर्माण भी हुआ है, परन्तु राज्यविप्लवादि और साम्प्रदायिक व्यामोह आदि से उनका संरक्षण नहीं हो सका है. अतः कितनी ही महत्त्व की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सामग्री विलुप्त हो गई है. जो अवशिष्ट बच पाई है उसका संरक्षण भी दूभर हो गया है. और बाद में उन स्थानों में वैसा मजबूत संगठन नहीं बन सका है, जिससे जैन संस्कृति और उसकी महत्वपूर्ण सामग्री का संकलन और संरक्षण किया जा सकता. खजुराहा-यह चन्देलकालीन उत्कृष्ट शिल्पकला का प्रतीक है. यहां खजूर का वृक्ष होने के कारण 'खर्जुरपुर' नाम पाया जाता है. खजुराहा जाने के दो मार्ग हैं. एक मार्ग-झाँसी-मानिकपुर रेलवे लाइन पर हरपालपुर या महोवा से छतरपुर जाना पड़ता हैं. और दूसरा मार्ग-झाँसी से बीना सागर होते हुए मोटर द्वारा छतरपुर जाया जाता है और छतरपुर से सतना जाने वाली सड़क पर से बीस मील दूर वमीठा में एक पुलिस थाना है, वहां से राजनगर को जो दश मील मार्ग जाता है उसके ७ वें मील पर खजुराहा अवस्थित है. मोटर हरपालपुर से तीस मील छतरपुर और वहाँ से खजुराहा होती हुई राजनगर जाती है. यहाँ भारत की उत्कृष्ट सांस्कृतिक स्थापत्य और वास्तुकला के क्षेत्र में चन्देल समय की देदीप्यमान कला अपना स्थिर प्रभाव अंकित किये हुए है. चन्देल राजाओं की भारत को यह असाधारण देन है. इन राजाओं के समय में हिन्दू संस्कृति को भी फलने-फूलने का पर्याप्त अवसर मिला है. उस काल में सांस्कृतिक कला और साहित्य के विकास को प्रश्रय मिला जान पड़ता है. यही कारण है कि उस काल के कला-प्रतीकों का यदि संकलन किया जाय, जो यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है, उससे न केवल प्राचीन कला की रक्षा होगी बल्कि उस काल की कला के महत्त्व पर भी प्रकाश पड़ेगा और प्राचीन कला के प्रति जनता का अभिनव आकर्षण भी होगा, क्योंकि कला कलाकार के जीवन का सजीव चित्रण है. उसकी आत्म-साधना कठोर छैनी और तत्त्वस्वरूप के निखारने का दायित्व ही उसकी कर्तव्यनिष्ठा एवं एकाग्रता का प्रतीक है. भावों की अभिव्यंजना ही कलाकार के जीवन का मौलिक रूप है, उससे ही जीवन में स्फूर्ति और आकर्षक शक्ति की जागृति होती है. उच्चतम कला के विकास से तत्कालीन इतिहास के निर्माण में पर्याप्त सहायता मिलती है. Sess Jain Dante al or Plate Drop rww.janelionyy.orgPage Navigation
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