Book Title: Madhya Bharat ka Jain Puratattva
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ परमानन्द जैन : मध्यभारत का जैन पुरातत्त्व : ७०५ ५ का मंदिर सहस्रकूट चैत्यालय है जिसकी कलापूर्ण मूर्तियाँ अपूर्व दृश्य दिखलाती हैं. इस मन्दिर के चारों ओर १००८ प्रतिमाएं खुदी हैं. बाहर सं० ११२० का लेख भी उत्कीणित है, जो सम्भवत: इस मन्दिर के निर्माणकाल का ही द्योतक है. नं० ११ के मन्दिर में दो शिलाओं पर चौबीस तीर्थंकरों की बारह-बारह प्रतिमाएं अंकित हैं. ये सभी मूर्तियां प्रशान्त मुद्रा को लिये हुए हैं. इन सब मन्दिरों में सबसे विशाल मन्दिर नं १२ है, जो शांतिनाथ मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है. जिसके चारों ओर अनेक कलाकृतियां और चित्र अंकित हैं. इसमें शान्तिनाथ भगवान की १२ फुट उत्तुंग प्रतिमा विराजमान है, जो दर्शक को अपनी ओर आकृष्ट करती है. और चारों कोनों पर अम्बिका देवी को चार मूर्तियां हैं, जो मूर्तिकला के गुणों से समन्वित हैं. इस मन्दिर की बाहरी दीवाल पर जो २४ यक्ष यक्षिणियों की सुन्दर कलाकृतियाँ बनी हुई हैं, इनकी आकृतियों से भव्यता टपकती है. साथ ही १८ लिपियों वाला लेख भी वरामदे में उत्कीणित है. इन सब कारणों से यह मन्दिर अपनी सानी नहीं रखता. देवगढ़ के जैन मन्दिरों का निर्माण, उत्तर भारत में विकसित आर्यनागर शैली में हुआ है. यह दक्षिण की द्रविड़ शैली से अत्यन्त भिन्न है. नागर शैली का विकास गुप्तकाल में हुआ है. देवगढ़ में तो उक्त शंली का विकास पाया ही जाता है किन्तु खजुराहो आदि के जैन मन्दिरों में भी इसी कला का विकास देखा जाता है. यह कला पूर्णरूप से भारतीय है और प्राग्मुस्लिमकालीन है. इतना ही, नहीं, किन्तु समस्त मध्य प्रान्त की कला इसी नागर शेली से ओत-प्रोत है. इस कला को गुप्त, गुर्जर प्रतिहार और चंदेल वंशी राजाओं के राज्य काल में पल्लवित और विकसित होने का अवसर मिला है. देवगढ़ की भूतियों में दो प्रकार की कला देखी जाती है. प्रथम प्रकार की कला में कलाकृतियां अपने परिकरों से अकित देखो जाती हैं, जैसे चमरधारी यक्ष यक्षणियां. सम्पूर्ण प्रस्तराकार कृति में नीचे तीर्थंकर का विस्तृत आसन और दोनों पावों में यक्षादि अभिषेक-कलश लिए हुए दिखलाये गये हैं. किन्तु दूसरे प्रकार की कला मुख्य मूर्ति पर ही अंकित है, उसमें अन्य अलंकरण और कलाकृतियाँ गौण हो गई हैं. मालूम होता है इस युग में साम्प्रदायिक विद्वेष नहीं था, और न धर्मान्धता ही थी, इसीसे इस युग में भारतीय कला का विकास जैनों, वैष्णवों और शैवों में निर्विरोध हुआ है. प्रस्तुत देवगढ़ जैन और हिंदू संस्कृति का सन्धिस्थल रहा है. तीर्थंकरमूर्तियां, सरस्वती की मूर्ति, पंच परमेष्ठियों की मूर्तियाँ, कलापूर्ण मानस्तम्भ, अनेक शिलालेख, और पौराणिक दृश्य अंकित हैं. साथ ही बराह का मंदिर, गुफा में शिवलिंग, सूर्य भगवान् की मुद्रा, गणेश मूर्ति, भारत के पौराणिक दृश्य, गजेन्द्रमोक्ष आदि कलात्मक सामग्री देवगढ़ की महत्ता की द्योतक है. भारतीय पुरातत्त्वविभाग को देवगढ़ से २०० शिलालेख मिले हैं जो जैन मन्दिरों, मूर्तियों और गुफाओं आदि में अंकित हैं. इन में साठ शिलालेख ऐसे हैं जिनमें समय का उल्लेख दिया हुआ है. ये शिलालेख सं० ६०६ से १८७६ तक के उपलब्ध हैं. इनमें सं० ६०६ सन् ५५२ का लेख नाहरघाटी से प्राप्त हुआ था, इसमें सूर्यवंशी स्वामी भट्ट का उल्लेख हैं. सं० ११६ का शिलालेख जैन संस्कृति की दृष्टि से प्राचीन है. इस लेख में भोज देव के समय पंच महाशब्द प्राप्त महासामन्त विष्णुराम के शासन में इस लुअच्छगिरि के शान्तिनाथ मंदिर के निकट गोष्ठिक वजुआ द्वारा निर्मित मानस्तभ आचार्य कमलदेव के शिष्य आचार्य श्रीदेव द्वारा वि० सं० ६१६ आश्विन १४ वृहस्पतिवार के दिन उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में प्रतिष्ठित किया गया था. इसी तरह अन्य छोटे छोटे लेख भी जैन संस्कृति की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं. इस तरह देवगढ़ मध्यप्रदेश की अपूर्व देन है. अहार क्षेत्र:- बुदेलखण्ड में खजुराहो की तरह अहार क्षेत्र भी एक ऐतिहासिक स्थान है. देवगढ़ की तरह यहाँ प्राचीन मूर्तियां और लेख पाये जाते हैं. उपलब्ध मूर्तियों के शिलालेखों से जान पड़ता है कि विक्रम की ११ वीं से १३ वीं शताब्दी तक के लेखों में अहार की प्राचीन बस्ती का नाम 'मदनेशसागरपुर' था.' और उसके शासक श्री मदनवर्मा १.सं०१२०८ और १२३७ के लेखों में मदनेशसागरपुर का नामांकन हुआ है; देखो, अनेकान्त वर्ष कि०१० पृष्ठ ३८५-६. JainEdiplomen amenorary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15