Book Title: Madhya Bharat ka Jain Puratattva
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 5
________________ ७०२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय साधुदेव गण तस्य पुत्र रत्नपाल प्रणमति नित्यं. ६- . तत्पुत्राः साधुश्री रत्नपाल तस्य भार्या साधा पुत्र कीर्तिपाल, अजयपाल, वस्तुपाल तथा त्रिभुवनपाल अजितनाथाय प्रणमति नित्यं . ' एक लेख में जो 'सं० १२२४ आषाढ़ सुदी २ रवी' के दिन परमद्धि देव के राज्यकाल का है, उसमें चंदेलवंश के राजाओं के नाम दिये हुए हैं. श्रावकों के नाम ऊपर दिये गये हैं. इन सब उल्लेखों से महोवा जैन संस्कृति का कभी केन्द्र रहा था. इसका आभास सहज ही हो जाता है. देवगढ़ का इतिहास देवगढ़ - दिल्ली से बम्बई जाने वाली रेलवे लाइन पर जाखलौन स्टेशन से 8 मील की दूरी पर है. इस नाम का एक छोटा-सा ऊजड़ ग्राम भी है. इस ग्राम में आबादी बहुत थोड़ी सी है. यह वेत्रवती ( वेतवा ) नदी के मुहाने पर नीची जगह बसा हुआ है. वहां से ३०० फुट की ऊँचाई पर करनाली दुर्ग है. जिसके पश्चिम की ओर वेतवा नदी कलकल निनाद करती हुई बह रही है. पर्वत की ऊँचाई साधारण और सीधी है. पहाड़ पर जाने के लिये पश्चिम की ओर एक मार्ग बना हुआ है, प्राचीन सरोवर को पार करने के बाद पाषाणनिर्मित एक चौड़ी सड़क मिलती है, जिसके दोनों ओर खदिर (खैर) और साल के सघन छायादार वृक्ष मिलते हैं. इसके बाद एक भग्न तोरण द्वार मिलता है, जिसे कुंजद्वार भी कहते हैं. यह पर्वत की परिधि को बढ़े हुए कोट का द्वार है. यह द्वार प्रवेशद्वार भी कहा जाता है. इसके बाद दो जीर्ण कोटद्वार और भी मिलते हैं. ये दोनों कोट जैनमन्दिरों को घेरे हुए हैं. इनके अन्दर देवालय होने से इसे देवगढ़ कहा जाने लगा है, क्योंकि यह देवों का गढ़ था परन्तु यह इसका प्राचीन नाम नहीं है. इसका प्राचीन नाम 'लुच्छगिरि' या 'लच्छगिरि' था, जैसा कि शान्तिनाथ मन्दिर के सामने वाले हाल के एक स्तम्भ पर शक संवत् ७८४ (वि० सं० ९१९) में उत्कीर्ण हुए गुर्जर प्रतिहार वत्सराज आम के प्रपौत्र और नागभट्ट द्वितीय या नागावलोक के पौत्र महाराजाधिराज परमेश्वर राजा भोजदेव के शिलालेख से स्पष्ट है. उस समय यह स्थान भोजदेव के शासन में था. इस लेख में बतलाया है कि शान्तिनाथमन्दिर के समीप श्री कमलदेव नाम के आचार्य के शिष्य श्रीदेव ने इस स्तम्भ को बनवाया था. यह वि० सं० ६१६ आश्विन सुद १४ बृहस्पतिवार के दिन भाद्रपद नक्षत्र के योग में बनाया गया था. २ विक्रम की १२वीं शताब्दी के मध्य में इसका नाम कीर्तिगिरि रक्खा गया था. पर्वत के दक्षिण की ओर दो सीढ़ियाँ हैं. जिनको राजघाटी और नाहर घाटी के नाम से पुकारा जाता है. वर्षा का सब पानी इन्हीं में चला जाता है. ये घाटियाँ चट्टान से खोदी गयी हैं. जिन पर खुदाई की कारीगरी पायी जाती है. राजघाटी के किनारे आठ पंक्तियों का छोटा सा सं० १९५४ का एक लेख उत्कीर्ण है. 3 जिसे चंदेलवंशी राजा कीर्तिवर्मा के प्रधान अमात्य वत्सराज ने खुदवाया था. Jain Bajucation yes (१) देखो, कनिंघम सर्वे रिपोर्ट जिल्द २१ पृ० ७३ ७४. (२) १. (ओं) परम भट्टारक) महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भो- २. ज देव पट्टी वर्द्धमान - कल्याण विजय राज्ये । ३. तरप्रदत्त - पञ्च महाशब्द- महासामन्त श्री विष्णु । ४. र म परिभुज्य या (के) लुअच्छगिरे श्री शान्तमत (न) ५. (स) निधे श्री कमल देवाचार्य शिष्येण श्रीदेवेन कारा ६. पितं इदं स्तम्भं । संवत् ६१६ अस्व ( श्व) युज० शुक्ल ७. पक्ष चतुर्दश्यां वृहत्पिति दिनेन उत्तर भाद्र प ८. द नक्षत्रे इदं स्तम्भं समाप्त मिति ||०|| (३) चांदेल्लवंशकुमुदेन्दुविशाल कीर्तिः ख्यातो बभूव नृप संघनतांत्रिपद्मः । विद्याधरो नरपति: कमलानिवासो, जातस्ततो विजयपालनृपो नृपेन्द्रः || तस्माद्धर्मपर श्रीमान् कीर्तिवर्मनृपोऽभवत् । यस्य कीर्तिसुधाशुभ्रे त्रैलोक्यं सोधतामगात् ॥ अगदं नूतनं विष्णुमाविभूतिमवाप्य यम् । नृपान्धि तस्समाकृष्टा श्रीरस्थैर्यप्रमार्जयत् || Zfor rivate & Persuades www.dine brary.org

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