Book Title: Lokvibhag Author(s): Sinhsuri, Balchandra Shastri Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur View full book textPage 9
________________ लोकविभागः याद उसके प्रस्तुत ग्रंथकी आधारभूमि होने में एक बडी शंकाशीलता प्रकट की है वह निरर्थक प्रतीत होती है । जब प्रस्तुत लेखक प्रतिज्ञापूर्वक एक पूर्वग्रंथका भाषापरिवर्तन मात्र कर रहे हैं, तब स्पष्ट है कि उन्होंने अपनी रचनाका वही नाम रखा होगा जो उसका आधारभूत ग्रंथ था । सा न होता तो जब उन्होंने उसके रचयिताका नाम लिया, उनके कालके राजाका भी और रचनाकालका भी निर्देश किया तब वे उसका असली नाम छिपाकर क्यों रखते ? यदि वह मूल ग्रंथ संस्कृतमें ही था तब उसका उसी भाषामें रूपान्तर करने और उसे भाषा परिवर्तन कहनेका क्या हेतु रहा होगा ? संस्कृतका संस्कृतमें ही भाषापरिवर्तन करना विद्यार्थियोंके अभ्यासके लिये अवश्य सार्थक है, किन्तु ग्रंथकारके लिये न तो वह कुछ अर्थ रखता है और न प्राचीन प्रणालीमें उसे भाषापरिवर्तन कहे जानेके कोई अन्य प्रमाण दिखाई देते । हां, प्राचीन प्राकृत ग्रंथोंके संस्कृत रूपान्तर अनेक दृष्टिगोचर होते हैं। अभी जो हरिदेवकृत अपभ्रंश भाषाका 'मयण-पराजय-चरिउ' ज्ञानपीठ, काशी, से प्रकाशित हुआ है उसका उन्हींकी पांच पीढी पश्चात् नागदेव द्वारा संस्कृत रूपान्तर किया गया था। नागदेवने स्पष्ट कहा है कि "जिस कथाको हरिदेवने प्राकृतमें रचा था उसे ही में भव्योंकी धर्मवृद्धि के लिये संस्कृतबद्ध उपस्थित करता हूं।" इस प्रकार प्राकृतका संस्कृतमें भाषापरिवर्तन करनेकी प्रतिज्ञा करके भी नागदेवने अपनी रचनामें बहुत कुछ नयापन लानेका प्रयत्न किया है और ज्ञानार्णव आदि ग्रंथोंसे अनेक अवतरण भी जोड दिये हैं। सिंहसुर द्वारा किये गये लोकविभाग के भाषापरिवर्तनको हमें इसी प्रकार समझना चाहिये । उसमें यदि पीछेके ले वकोंके अवतरणादि मिलते हैं तो उनसे उसका सर्वनन्दिकी रचनाके संस्कृत रूपान्तर होने की बात असिद्ध नहीं होती। पं. बालचन्द्रजीने जो इस ग्रंथके संशोधन, अनुवाद व प्रस्तावना लेखनमें परिश्रम किया है उसके लिये प्रधान सम्पादक उनके कृतज्ञ हैं। इस बातका हमें परम हर्ष है कि इस ग्रंथमालाके मन्त्री व अन्य अधिकारी मालाके प्रकाशनकार्यको गतिशील बनाने के लिय सदैव तत्पर रहते हैं। उनके इसी उत्साहके फलस्वरूप यह ग्रंथमाला इतना प्रकाशनकार्य कर सकी है, और आगे बहुत कुछ करनेकी आशा रखती है। कोल्हापूर जबलपूर आ. ने. उपाध्ये हीरालाल जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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