Book Title: Lokvibhag
Author(s): Sinhsuri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ १४] लोकविभागै! हुए अन्तमें संकेत किया गया है कि यह बिन्दु मात्र कथन है, विशेष विवरण लोकानुयोगसे जानना चाहिये। ८. अधोलोकविभाग-- इस प्रकरणमें १२८ श्लोक हैं । यहाँ प्रारम्भमें रत्नप्रभादि सात पृथिवियोंका निर्देश करके उनके पृथक् पृथक् बाहल्यप्रमाणको बतलाते हुए उनके तलभागमें तथा लोकके बाह्य भागमें जो घनोदधि आदि तीन वातवलय अवस्थित हैं उनके बाहल्यप्रमाणका निर्देश किया गया है । तत्पश्चात् प्रत्येक पृथिवीमें स्थित पटलोंकी संख्या, उनके बाहल्य व परस्परके मध्यगत अन्तरके प्रमाणको दिखलाते हए किस पथिवीमें कितने इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक नारक विल है; इसकी गणितसूत्रोंके अनुसार प्ररूपणा की गई है । साथ ही प्रसंग पाकर यहाँ उन नारक बिलोंमें स्थित जन्मभूमियोंकी आकृति व विस्तारादि, नारकियोंके शरीरकी ऊंचाई, आयु, आहार, अवधिज्ञानका विषय, यथासम्भव गत्यादि मार्गणायें, शीत-उष्णकी वेदना, छह लेश्याओंमेंसे सम्भव लेश्या, जन्मभूमियोंसे नीचे गिरकर पुनः उत्पतन, जन्म-मरणका अन्तर, गति-आगति, प्रत्येक पृथिवीसे निकलकर पुनः उसमें उत्पन्न होनेकी वारसंख्या, नारक भूमियोंसे निकलकर प्राप्त करने व न प्राप्त करने योग्य अवस्थायें, विक्रियादिकी विशेषता और क्षेत्रजन्य दुखकी सामग्री ; इत्यादि विषयोंकी भी प्ररूपणा की गई है। ९. व्यन्तरलोकविभाग-- इस प्रकरणमें ९९ श्लोक हैं। यहाँ प्रथमतः व्यन्तर देवोंके औपपातिक, अध्युषित और अभियोग्य इन तीन भेदोंका निर्देश करके उनके भवन, आवास और भवनपुर नामक तीन निवासस्थानों का उल्लेख किया गया है। इनमें किन्हीं व्यन्तर देवोंके केवल भवन ही, किन्हींके भवन और आवास ; तथा किन्हींके भवन, आवास और भवनपुर ये तीनों ही होते हैं । इनमेंसे भवन चित्रा पृथिवीपर; आवास तालाब, पर्वत एवं वृक्षोंके ऊपर; तथा भवनपुर द्वीप-समुद्रोंमें हुआ करते हैं। प्रसंगवश यहाँ इन भवनादिकोंकी रचना व उनके विस्तारादिकी भी प्ररूपणा की गई है। इसके पश्चात् यहाँ पिगाचादि आठ प्रकारके व्यन्तरोंके पृथक् पृथक् कुलभेदों, उनके दो दो इन्द्रों व उन इन्द्रोंकी दो दो प्रधान देवियोंके नामादिका निर्देश करके उन पिशाचादि व्यन्तरोंके वर्ण व चैत्यवृक्षोंका उल्लेख करते हुए सामानिक आदि परिवार देवोंकी संख्या निर्दिष्ट की गई है। इस प्रसंगमें यहाँ अनीक देवोंकी पृथक् पृथक् सात कक्षाओंका निर्देश करके उनके महत्तरों (सेनापतियों) का नामोल्लेख करते हुए उन अनीक देवोंकी कक्षाओंकी संख्याका निरूपण किया गया है । व्यन्तरेन्द्रोंकी पांच पांच नगरियां (राजधानियां) होती हैं जो अपने अपने नामके आश्रित होती हैं । जैसे- काल नामक पिशाचेन्द्रकी काला, कालप्रभा, कालकान्ता, कालावर्ता और काल मध्या ये पांच नगरियां । इनमें काला मध्यमें, कालप्रभा पूर्व में, कालकान्ता दक्षिणमें, कालावर्ता पश्चिममें और कालमध्या उत्तरमें स्थित है। इस प्रकार यहाँ इन नगरियों के विस्तारादिको भी दिखलाकर अन्त में भवनत्रिक देवोंमें लेश्याका निर्देश करते हुए उन पिशाचादि व्यन्तरोंमें गणिका महत्तरोंके नामोल्लेखपूर्वक उनकी आयु व शरीरकी ऊंचाई आदिका भी कथन किया गया है। १० स्वर्गविभाग-- इस प्रकरणमें ३४९ श्लोक हैं। ऊर्ध्वलोकविभागमें प्रथमत: भवनवासियोंके ऊपर क्रमशः नीचोपपातिक आदि विविध देवोंके व अन्तमें सिद्धोंके निवासस्थानका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 312