Book Title: Lokvibhag
Author(s): Sinhsuri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 15
________________ १२] लोकविभाग: लवणोद व कालोद ये दो समुद्र ; इतने (पु. ८-+का. ८-+-धा. ४.+ल. २+जं. १-4-ल. २+धा. ४ +का. ८+पु. ८ = ४५ लाख योजन) क्षेत्रको अढ़ाई द्वीप अथवा मनुष्यक्षेत्रके नामसे कहा जाता है। मनुष्यक्षेत्र कहलानेका कारण यह है कि मनुष्योंका निवास व उनका गमनादि इतने मात्र क्षेत्रके ही भीतर सम्भव है, इसके बाहिर किसी भी अवस्थामें उनका अस्तित्व सम्भव नहीं है । अन्तमें उस मानुषोत्तर पर्वत के विस्तार, परिधि और उसके ऊपर स्थित कूटोंका वर्णन करते हुए मध्यलोकमें स्थित ३९८ जिनभवनोंको नमस्कार करके इस प्रकरणको समाप्त किया गया है । ४. समुद्र विमाग- इस प्रकरणमें ९२ श्लोक हैं। यहां सर्वप्रथम मध्यलोकमें स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रों में आदि व अन्तके १६-१६ द्वीपों व समुद्रोंका नामोल्लेख करके समुद्रोंके जलस्वाद और उनमें जहाँ जलचर जीवोंकी सम्भावना है उनका नामोल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् राजुके अर्धच्छेदोंके क्रमका निर्देश करते हुए आदिके नौ द्वीप-समुद्रोंके अधिपति देवोंके नामोंका उल्लेख किया गया है। आगे चलकर नन्दीश्वर द्वीपका विस्तारसे वर्णन करते हुए उसके भीतर अवस्थित ५२ जिनभवनोंमें अष्टाह्निक पर्वके समय सौधर्मादि इन्द्रोंके द्वारा की जानेवाली पूजाका उल्लेख किया है । तत्पश्चात् अरुणवर द्वीप, अरुणवर समुद्र के ऊपर उद्गत अरिष्ट नामक अन्धकार, ग्यारहवें कुण्डलवर द्वीपके मध्य में स्थित कुण्डल पर्वत व उसके ऊपर स्थित १६ कूट, तेरहवें रुचक द्वीपके मध्य में स्थित रुचक पर्वत और उस रुचक पर्वतपर स्थित कूटोंके ऊपर अवस्थित प्रासादोंमें रहनेवाली दिक्कुमारियां व उनके द्वारा की जानेवाली जिनमाताकी सेवा, तथा अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप व उसके . मध्यमें स्थित स्वयंप्रभ पर्वत; इन सबका यथायोग्य वर्णन किया गया है । ५. कालविभाग- इस प्रकरणमें १७६ श्लोक हैं । यहाँ प्रारम्भमें अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी कालोंके विभागस्वरूप सुषमसुषमादि कालभेदोंका उल्लेख करके अवसर्पिणीके प्रथम तीन कालोंमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंके शरीरकी ऊंचाई, आहारग्रहणकाल, पृष्ठास्थिसंख्या, नौ प्रकारके कल्पवृक्षों द्वारा दी जानेवाली भोगसामग्री और तत्कालीन नर-नारियोंके स्वरूपका निरूपण किया गया है । पश्चात् इन तीन कालों में से कौन-सा काल कहाँपर निरन्तर प्रवर्तमान है, इसका निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि जब तृतीय कालमें पल्योपमका आठवां भाग (1) शेष रह जाता है तब चौदह कुलकर' व उनके पश्चात् आदि जिनेन्द्र भी उत्पन्न होते हैं। उन कुलकरोंका वर्णन यहाँ अनुक्रमसे किया गया है । इनमें अन्तिम कुलकर नाभिराज थे। उनके समयमें कल्पवृक्षोंकी फलदानशक्ति प्रायः समाप्त हो चुकी थी। इसके पूर्व जो मेघ कभी दृष्टिगोचर १. आवश्यकसूत्र (नियुक्ति) में कुलकरोंकी संख्या सात निर्दिष्ट की गई है । यथा - ओसप्पिणी इमीसे तइयाए समाए पच्छि मे भाए । पलितोवमट्ठभागे सेसंमि य कुलगरुप्पती॥ अद्धभरहमज्झिल्लतिभागे गंगासिंधुमज्मम्मि । एत्थ बहुमज्झदेसे उप्पन्ना कुलगरा सत्त ।। १४७ - ४८. यहां उनकी प्ररूपणा क्रमसे पूर्वभव, जन्म, नाम, प्रमाण, संहनन, संस्थान, वर्ण, स्त्रियां, आयु, भाग (कुलकर होनेका वयोभाग),भवनोपपात और नीति ; इन १२ द्वारोंके आश्रयसे की गई है । नाम उनके ये हैं-१ विमलवाहन, २ चक्षुष्मान्, ३ यशस्वी, ४ अभिचन्द्र, ५ प्रसेनजित्, ६ मरुदेव और ७ नाभि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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