Book Title: Lokvibhag Author(s): Sinhsuri, Balchandra Shastri Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur View full book textPage 8
________________ प्रधान सम्पादकीय वक्तव्य प्रस्तुत ग्रंथमालामें हम करणानुयोग विषयक दो ग्रंथों-तिलोयपण्णत्ति और जम्बूदीवपण्णत्ति-को पाठकोंके हाथमें सौंप चुके हैं । अब उसी विषयका यह तीसरा ग्रंथ उपस्थित है । __इस ग्रंथके सम्पादकने अपनी प्रस्तावनामें इस रचनाका अनेक दृष्टियोंसे परिचय कराया है जो ग्रंथकी भाषा, विषय व इतिहासकी जानकारीके लिये महत्त्वपूर्ण है । विशेष ध्यान देने योग्य इस ग्रंथके अन्तकी प्रशस्ति है जिसमें कहा गया है कि " इस विश्वकी रचनाका जो स्वरूप भगवान् महावीरने बतलाया, सुधर्मादि गणधरोंने जाना और आचार्यपरम्परासे चला आया, उसे ही सिंहसूर ऋषिने भाषापरिवर्तनसे यहां रचा है" (११, ५१) । ग्रंथकारके इस कथनसे सुस्पष्ट है कि जिस परम्परासे उन्हें यह ज्ञान प्राप्त हुआ उसमें महावीरसे लगाकर उनके समय तक कोई भाषापरिवर्तन नहीं हुआ था; उन्होंने ही उसे भाषान्तरका रूप दिया। यह भली भांति ज्ञात है कि महावीर स्वामीने अपना उपदेश संस्कृत में नहीं, प्राकृतमें दिया था, और उनके गणधरोंने तथा उनके अनुयायी आचार्योंने भी उसे प्राकृतमें ही ग्रंथरूपसे रचा था, सिंहसूरको अपने कालमें प्राकृत पठन-पाठनके ह्रास व संस्कृतके अधिक प्रसारके कारण यह आवश्यकता प्रतीत हुई होगी कि इस विषयका ग्रंथ संस्कृतमें भी उतारना चाहिये, और यही उनके भाषापरिवर्तनका हेतु रहा। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि उक्त प्राकृत रचनाकी परम्परामें किस विशेष ग्रंथके आधारसे सिंहसूरने यह भाषापरिवर्तन उपस्थित किया? इसका उत्तर भी उन्होंने आगे के पद्य (११, ५२ आदि) में बहुत स्पष्टतासे दे दिया है । अपने कार्य के लिये उनके सम्मुख जो ग्रंथ विशेष रूपसे उपस्थित था वह था सर्वनन्दि मुनि द्वारा लिखित वह शास्त्र जो उन्होंने काञ्चीनरेश सिंहवर्माके राज्यकालमें शक संवत् ३८० में पूर्ण किया था । इस प्रकार इसमें किसी संशयको अवकाश नहीं रहता कि प्रस्तुत संस्कृत रचना मुख्यतः मुनि सर्वनन्दि की प्राकृत रचनाके आधारसे, की गई है । उस प्राकृत ग्रंथका क्या नाम था, यह यद्यपि उक्त प्रशस्तिमें पृथक् रूपसे नहीं कहाँ गया, किन्तु प्रसंग पर से स्पष्टतः उसका नाम ' लोयविभाग' (सं. लोकविभाग) ही रहा होगा। जब कोई लेखक प्रतिज्ञापूर्वक एक ग्रंथका भाषापरिवर्तन अर्थात् आधुनिक शब्दोंमें अनुवाद मात्र करता है तब वह उस ग्रंथका नाम बदलनेका साहस नहीं करता। दूसरे तिलोयपण्णत्तिमें 'लोयविभाग' का अनेक वार प्रमाणरूपसे उल्लेख किया गया है जिसका अभिप्राय सिंहसूरकी रचनासे कदापि नहीं हो सकता । इससे सर्वनन्दिकी रचनाका नाम लोयविभाग, तथा उसकी प्राचीनता व मान्यता भले प्रकार सिद्ध होती है। ___ इस परिस्थितिमें प्रस्तुत ग्रंथके विद्वान् सम्पादकने अपनी प्रस्तावना (पृष्ठ २५) में जो 'क्या सर्वनन्दिकृत कोई लोकविभाग रहा है ? ' 'सम्भव है उसका कुछ अन्य ही नाम रहा हो, और वह कदाचित् संस्कृतमें रचा गया हो' इत्यादि वाक्यों द्वारा सर्वनन्दिकी रचना और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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