Book Title: Lokprakash Part 02 Author(s): Padmachandrasuri Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan SanghPage 12
________________ (xi) जागृत रखने के उद्देश्य से इस कृति को रचा गया होगा । जो भी इस ग्रन्थ का पठन-वाचन करेगा तो इसके अलौकिक, अध्यात्म परक शान्त सुधा रस का आस्वादन करेगा । प्रायकर इसका प्रत्येक श्लोक अलग-अलग राग शैली पर आधारित है । इसका रचना काल संवत् १७२३ तथा स्थान गांधार नगर कहा गया (५) षट्त्रिंशत् जल्प संग्रह : - परम पूज्य श्री भाव विजय जी म० सा० ने सं० १६६६ में संस्कृत भाषा में पद्यमय काव्य ग्रन्थ 'षट्त्रिंशत्' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। हमारे पूज्य प्रवर उपाध्याय 'श्री विनय विजय' जी म० सा० ने संक्षिप्त रुप से इसे संस्कृत में ही गद्य स्वरुप प्रदान किया है । (६) अर्हन्नमस्कार स्तोत्र : - इस स्तोत्र में परमात्मा की स्तुतिया है । वर्तमान समय में इस ग्रन्थ का अभाव है । इसकी मूल प्रति उदयपुर भंडार में सुरक्षित बताई गई है। (७) जिन सहस्त्र नाम स्तोत्र : - विद्वत्ता से भरी, भक्ति भाव पूर्ण इस कृति में संस्कृत भाषा में रचित १४६ उपजाति द्वन्दों का सृजन है । कहा जाता है कि इसकी रचना संवत् 1731 के गांधार नगर के चार्तुमासिक प्रवास काल में की • गई थी। इस ग्रन्थ की विशेषता है कि प्रत्येक श्लोक में सात बार भगवंतों को नमस्कार किया गया है। सब मिला कर १००१ बार नमस्कार करने में आया है। (८) आनंदलेख : - यह लेख भी संस्कृत भाषा में रचित है । २५१ श्लोकों से युक्त . इस ग्रन्थ की रचना १६६६ वि० संवत् कहा गया है । पूर्ण पांडित्य पूर्ण संस्कृत के इस ग्रन्थ का भी बहुत आदर है । उपाध्याय 'श्री विनय विजय' जी म०सा० ने गुजराती भाषा में भी साहित्य सृजन किया है । इनके अनेक ग्रन्थ गुजराती भाषा में लिखित है, जिनका उल्लेख करना भी आवश्यक है। (६) सूर्य पुर चैत्य परिपाटी : - गुजराती की प्रथम रचना 'सूर्यपुर चैत्य परिपाटी' का रचना काल विक्रमी संवत् १६८६ है । इस ग्रन्थ में सूर्य पुर (सूरत) नगर के चैत्यो (जिन मन्दिरों) की परिपाटी का वर्णन है । उस में सूरत में स्थित ११ जिनालयों का उल्लेख मिलता है । जिन मन्दिरों के मूलनायक श्री जिनेश्वर भगवंत की स्तुति रुप १४ कडियों में ग्रन्थ-कार ने तीर्थमाला की रचना की है। (१०) विजय देव सूरी लेख :- इसमें परम पूज्य, अकबर बादशाह के प्रति बोधक, आचार्य देव श्रीमद् विजय हीर सूरीश्वर जी म० सा० के पट्टालंकार आचार्यPage Navigation
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