Book Title: Lokprakash Part 02 Author(s): Padmachandrasuri Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan SanghPage 11
________________ किया । इसके पश्चात इसकी स्वोपज्ञ टीका रची । अपनी विद्वता प्रतिभा को प्रकाशित करते हुए ३४००० श्लोक प्रमाण यह टीका अत्यन्त सरस एवं सरल संस्कृत भाषा मे रची । इस ग्रन्थ को सं० १७३६ में रतलाम में विजय दशमी के दिन पूर्ण किया गया। (२) नयकर्णिका :- 'नय' का ज्ञान तो अथाह सागर है । अपने जिन शासन में हर एक विषय में 'नय' दी है । विषय की जटिलता को देखते हुए उपाध्याय जी ने बाल जीवों के ज्ञानार्थ अत्यन्त सरल भाषा में ज्ञान कराने हेतु इसकी रचना की हैं । इसमें सिर्फ २३ गाथाओं के द्वारा 'नय' विषय में प्रवेश हेतु प्रवेशिका रुप में प्रस्तुत किया है । यह लघुकाय पुस्तक 'नय' के अभ्यासी के लिये अत्यन्त उपयोगी है । (३) इन्दुदूत :- (काव्यमाला) यह एक सरस काव्य मय कृति है । पुरातन समय में संवत्सरी प्रतिक्रमण के पूर्ण होने पर एक संघ दूसरे संघ के प्रति क्षमापणा पत्र लिखता था । शिष्य- गुरु के प्रति भक्ति भाव प्रदर्शित कर क्षमा याचना करता था। कभी-कभी तो यह ५० हाथ से १०० हाथ तक के लम्बे कागज पर लिखे जाते थे। इसके दोनों ओर हाशिये बना कर मन्दिरों, मूर्तियों, सरोवरों, नदियों कुओ, नर्तकियों आदि के विभिन्न रगों वाले चित्रों से सजाया जाता था । उस ही भाव - भंगिमा से प्रेरणा प्राप्त कर उपाध्याय श्री जी ने काव्य कला के विभिन्न रस, छन्द, अंलकार, भाव भंगिमा रुप चित्रों से युक्त एक काव्यमय पत्र जोधपुर से सूरत विराज मान गच्छाधिपति आचार्य भगवत श्री मद् विजय प्रभ सूरीश्वर जी म० सा० की सेवा में लिखा । इस काव्य मय पत्र में चन्द्रमा को दूत बना कर जोध पुर से सूरत तक के सभी तीर्थों, जिन मन्दिरों, नगरों एवं शासन प्रभावक सुश्रावकों का चित्रण (वर्णन) करते हुए लिखा गया यह पत्र अत्यन्त प्रभावोत्पादक था। अत्यन्त मनोरम एवं अद्भुत रुप से रचित मात्र १३१ श्लोको का यह काव्य अत्यन्त प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ । इसका रचना काल सं० १७१८ वि० है। शान्त सुधारस :- यह ग्रन्थ रत्न भी काव्य मय है । इसका विवेच्य विषय 'अनित्य' आदि १२ भावना तथा मैत्र्यादि चार भावना हैं । इसमें सरल संस्कृत भाषा में ३५७ श्लोकों से रचा गया है । समस्त संस्कृत साहित्य में, जैन ग्रन्थों में अनेकों प्रकार की राग-रागनियों युक्त शायद ही कोई दूसरा ग्रन्थ उस काल में रहा होगा। उपाध्याय जी महाराज केवल कवि हृदय ही नहीं अपितु अनुभव सिद्ध कवि थे । उस समय मुगलों का अधिपत्य चतुर्दिग प्रसरित होने से हिन्द् प्राय असहाय अवस्था का अनुभव करते थे । कदाचित मुगलों से हैरान, परेशान हिन्दु अधिकतर प्रसंगों पर कषायों से ग्रसित रहे होंगें । ऐसे प्रसंग पर संघ की अपनी आत्मा कोPage Navigation
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