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भवनवासी देवों के असुरकुमार, नागकुमार, विद्युतकुमार, सुवर्ण कुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधि कुमार और दिककुमार ये दश भेद हैं। व्यंतर देवों के किन्नर, किम्पुरूष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच इस प्रकार आठ भेद हैं। ज्योतिष्क देवों के सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारों के भेद से पाँच प्रकार हैं। ज्योतिष्क देव मनुष्यलोक में मेरूपर्वत की प्रदिक्षणा देते हुए हमेशां गमन करते रहते हैं। घड़ी, घण्टा, दिन, रात आदि व्यवहार - काल का विभाग उन्हीं गतिशील ज्योतिष्क देवों के द्वारा किया गया है। मनुष्य लोक अढ़ाई द्वीप से बाहर के ज्योतिष्क देव स्थिर हैं।
विमान-जिसमें रहने वाले देव अपने को विशेष पुण्यात्मा समझे उन्हें विमान कहते हैं और विमानों में जो पैदा हों उन्हें वैमानिक कहते हैं। वैमानिक देवों के दो भेद हैं - (1) कल्पोपन्न और (2) कल्पातीत। जिनमें इन्द्र आदि दश भेदों की कल्पना होती हैं ऐसे सोलह स्वर्गो को कल्प कहते हैं, उनमें जो पैदा हो उन्हें कल्पोपन्न कहते हैं। जो सोलहवें स्वर्ग से आगे पैदा हों उन्हें कल्पातीत कहते हैं। सोलह स्वर्गों के आठ युगल, नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर ये सब विमान क्रम से ऊपर ऊपर हैं। सौधर्म ऐशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, बह्म-बमोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, सतार-सहस्त्रार इन छह युगलों के बारह स्वर्ग में, आनत-प्राणत, इन दो स्वर्गो में, आरण-अच्युत इन दो स्वर्गो में, नव ग्रैवेयक विमानों में, नव अनुदिश विमानों में और विजय वैजयन्त जयन्त अपराजित तथा सर्वार्थ सिद्धि इन पोंच अनुत्तर विमानों में वैमानिक देव रहते हैं। वैमानिक देव-आयु, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या की विशुद्धता, इन्द्रिय विषय और अवधिज्ञान का विषय इन सबकी अपेक्षा ऊपर ऊपर विमानों में अधिक अधिक है। ऊपर ऊपर के देव, गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान की अपेक्षा हीन हीन है। सोलह स्वर्ग से आगे के देव अपने विमान को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाते। नवग्रैवेयक वगैरह के देव एक समान वैभवधारी होते हैं और वे अहमिन्द्र कहलाते हैं। ब्रह्मलोक के देव लौकान्तिक देव हैं। सारस्वत, आदित्य, वहनि, अरूण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट ये आठ लौकान्तिक देव हैं। वे ब्रह्मलोक की ऐशान आदि आठ दिशाओं में रहते हैं। विजय वैजयंत जयंत अपराजित तथा अनुदिश विमानों के अहमिन्द्र द्विचरम होते हैं, अर्थात् मनुष्यों के दो जन्म लेकर नियम से मोक्ष चले जाते हैं। किन्तु सरवार्थ सिद्धि के अहमिन्द्र एक भवावतारी ही होते हैं।
ज्योतिर्लोक
जो ज्योतिर्मय होते हैं, उसको ज्योतिष्क कहते हैं। ज्योतिष्क देवों के पाँच प्रकार हैं – (1) चंद्र (2) सूर्य (3) ग्रह (4) नक्षत्र (5) प्रकीर्णक तारा। ये पाँचों लोक के अंत में धनोदधिवातवलय का स्पर्श करते हैं अर्थात् पूर्व-पश्चिम की अपेक्षा धनोदधिवातवलय तक ज्योतिष्क देवों के विमान हैं। जम्बूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण अर्थात् असंख्यात द्वीप समुद्र पर्यन्त ज्योतिष्क देव रहते हैं। ढाई उद्धार सागर रोम के परिमाण द्वीप समूह की संख्या हैं। सूर्य और चंद्र की किरणें समान नहीं हैं।
ज्योतिष्क देव के इन्द्र चन्द्र हैं एवं प्रतिइन्द्र सूर्य है एक चन्द्रमा के परिवार में 88 ग्रह, 28 नक्षत्र और 66775X1014 तारागण हैं । जम्बूद्वीप में 2 चन्द्रमा एवं 2 सूर्य हैं। लवणोदक समुद्र में 4 चन्द्र 4 सूर्य हैं। तथा धातकी खण्ड में 12 चन्द्र एवं 12 सूर्य हैं। कालोदधि समुद्र में 42 चन्द्र तथा 42 सूर्य हैं। अर्धपुष्कर द्वीप में 72 चन्द्र एवं 72 सूर्य है। जम्बूद्वीप में 36 ध्रुवतारा, लवणोदक समुद्र में 139 ध्रुवतारा, धातकी खण्ड में 1010 ध्रुव तारा, कालोदक में 41120 ध्रुवतारा तथा पुष्करार्ध में 35230 ध्रुवतारा हैं।
ज्योतिष्किदेव मेरू की प्रदक्षिणा करके नित्य भ्रमण करते हैं। इनकी गति के अनुसार दिन-रात्रि आदि काल विभाग होता है। ज्योतिष्क देवों के समूह मेरू पर्वत को 1121 योजन छोड़कर प्रदक्षिणा रूप से गमन करते हैं। चन्द्र, सूर्य एवं ग्रह को छोड़कर शेष सभी ज्योतिष्क देव एक ही पथ में गमन करते हैं। चन्द्र, सूर्य एवं ग्रह के अनेक गति पथ हैं।