Book Title: Lok
Author(s): Narayanlal Kachara
Publisher: Narayanlal Kachara

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Page 10
________________ भरत और ऐरावत क्षेत्र संबंधी म्लेच्छखण्डों तथा विजयार्ध पर्वत की श्रेणियों में अवसर्पिणी काल के समय चतुर्थ काल के आदि से लेकर अन्त तक परिवर्तन होता है, और उत्सर्पिणी काल के समय तृतीय काल के अन्त से लेकर आदि तक परिवर्तन होता है। (अर्थात् दुःषमा सुषमा काल ही बना रहता है।) इनमें आर्यखण्डों की तरह छहों कालों का परिवर्तन नहीं होता है और न इनमें प्रलयकाल पड़ता है। भरत और ऐरावत के सिवाय अन्य क्षेत्र एक ही अवस्था में रहते हैं - उनमें काल का परिवर्तन नहीं होता। हैमवत, हरिवर्ष और देवकुरू (विदेह क्षेत्र के अन्तर्गत एक विशेष स्थान) के निवासी मनुष्य तिर्यंच्च क्रम से एक पल्य, दो पल्प और तीन पल्प की आयु वाले होते हैं। उत्तर के क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्य भी हैमवत आदि के मनुष्यों के समान आयुवाले होते हैं। अर्थात् हैरण्यवत क्षेत्र की रचना हैमवत क्षेत्र के समान, रम्यक की रचना हरिक्षेत्र के समान और उत्तर कुरू (विदेह क्षेत्र के अन्तर्गत स्थान-विशेष) की रचना देव कुरू के समान है। इस प्रकार उत्तम, मध्यम और जघन्य रूप तीनों भोग भूमियों के दो दो क्षेत्र हैं। जिनमें सब तरह की भोगोपभोग की सामग्री कल्पवृक्षों से प्राप्त होती है उन्हें भोग भूमि कहते हैं। जम्बूद्वीप में छह भोगभूमियाँ और अढाईद्वीप में कुल 30 भोग भूमियाँ हैं। विदेह क्षेत्रों में मनुष्य और तिर्यंच्च संख्यात वर्ष की आयुवाले होते हैं। भरत क्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप के एक सौ नब्बेवां भाग है। पंचमेरू संबंधी पांच भरत और पांच ऐरावत क्षेत्रों के आर्य खण्डों में कालचक्र घटित होते हैं। म्लेच्छ खण्डों में उपद्रव रहित अवसर्पिणी काल के चतुर्थ काल (दुःषमा-सुषमा) की वर्तना शाश्वत रहती है, वहाँ जीवों के काय, आयु एवं सुख आदि का वृद्धि-हास होता है। वहाँ शेष कालों के सदृश वर्तना नहीं होती। - उत्तर कुरू और देवकुरू नामक उत्तम भोग भूमियों में अवसर्पिणी के प्रथम काल के सदृश आयु, उत्सेध एवं सुख आदि की वर्तना होती है। - हरि, रम्यक क्षेत्रों की दस मध्यम भोगभूमियों में अवसर्पिणी के द्वितीय काल के प्रारम्भ सदृश वृद्धि - हास से रहित वर्तना होती है। - हेमवत् और हैरण्यवत् श्रेत्रगत दस जघन्य भोग भूमियों में अवसर्पिणी के तृतीय काल के प्रारम्भ सदृश शाश्वत वर्तना होती है। - मानुषोत्तर पर्वत के बाहर और स्वयंभूरमण द्वीप के मध्य में अवस्थित नागेन्द्र पर्वत के भीतर-भीतर जघन्य भोग भूमि का वर्तन होता है। - नागेन्द्र पर्वत के बाहृय भाग से अर्ध स्वयंभूरमण द्वीप में और स्वयं भूरमण समुद्र मे अवसर्पिणी काल के पंचम काल के प्रारम्भ सदृश, हानि-वृद्धि रहित वर्तना होती है। - चतुर्निकाय देवों के स्वर्ग में सुख के सागर स्वरूप सुषमा-सुषमा काल के सदृश ही नित्य वर्तन होता है। - सातों नरक-भूमियों में नित्य ही असाता की खान दुःषमा-दुःषमा काल के सदृश वर्तन होता है। देवो के भेद देवों के चार भेद हैं - (1) भवनवासी (2) व्यंतर (3) ज्योतिष्क और (4) वैमानिक। सोलहवें स्वर्ग तक के देव पर्यन्त उक्त चार प्रकार के देवों के क्रमशः दश, आठ, पाँच और बारह भेद हैं। सभी चार प्रकार के देवों में प्रत्येक के इन्द्र, सामानिक , त्रायस्त्रिश, परिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, अभिभोग्य और किल्विषिक ये दस भेद होते हैं। व्यंतर और ज्योतिषी देव त्रायस्त्रिंश तथा लोकपाल भेद से रहित होते हैं। भवनवासी और व्यंतरों में प्रत्येक भेद में दो-दो इन्द्र होते हैं। इस प्रकार भवनवासियों के दश भेदों में बीस और व्यंतरों के आठ भेदों में सोलह इन्द्र होते हैं तथा इतने ही प्रतीन्द्र होते हैं।

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