Book Title: Kevalgyan aur Kevaldarshan dono Upayog Yugpat nahi Hote
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ उसने रेडियो और टेलीविजन ही खरीदा है तथा इस समय यह रेडियो चला रहा है, टेलीविजन नहीं चला रहा है तो यह कहा जायेगा कि उस धनाढ्य व्यक्ति में क्षमता तो अनेक वस्तुओं को प्राप्त करने की है, उपलब्धि उसे रेडियो और टेलीविजन दोनों की है और उपयोग वह रेडियो का कर रहा है । यह क्षमता, उपलब्धि और उपयोग में अन्तर है । उपलब्धि और उपयोग के हेतु भी अलग-अलग हैं । उपलब्धि या लब्धि, कर्मों के क्षयोपशम या क्षय से होती है और उपयोग लब्धि के अनुगमन करने रूप व्यापार से होता है । जैसा कि उपयोग की परिभाषा करते हुए कहा गया है उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रतिव्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः - प्रज्ञापना २४ पद । अर्थात् वस्तु के जानने के लिये जीव के द्वारा जो व्यापार किया जाता है, उसे उपयोग कहते हैं । " उभय निमित्त वशादुत्पद्यमान श्चैतन्यानुविधायी परिणामः उपयोगः इन्द्रिय फलमुपयोग" सर्वार्थसिद्धि अ०२सूत्र ६ व १८ अर्थात् जो अंतरंग और बहिरंग दोनों निमित्तों से होता है और चैतन्य का अनुसरण करता है ऐसा परिणाम उपयोग है । अथवा इन्द्रिय का फूल उपयोग है अथवा “स्व पर ग्रहण परिणाम उपयोगः " धवलाटीका पु० २ पृ० ४१ अर्थात् स्व-पर जो ग्रहण करने वाला परिणाम उपयोग है । वत्थु निमित्तो भावो जादो जीवस्स होदि उवओगो । — पंचसंग्रह प्रा. १/१६८ अर्थात् वस्तु ग्रहण करने के लिए जीव के भाव का प्रवृत्त होना उपयोग है । उपर्युक्त परिभाषाओं से यह फलित होता है कि ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से या क्षय से होने वाले गुणों की प्राप्ति को लब्धि कहते और उस लब्धि के निमित्त से होने वाले जीव के परिणाम २६० Jain Education International या भाव का प्रवृत्त होना, उपयोग है परिणाम या भाव एक समय में एक ही हो सकता है । अतः एक समय में एक ही उपयोग हो सकता है अर्थात् ज्ञानोपयोग के समय दर्शनोपयोग और दर्शनोपयोग के समय ज्ञानोपयोग नहीं हो सकता । परन्तु लब्धियाँ ज्ञान दर्शन गुण ही नहीं, दान, लाभ, भोग आदि गुणों की भी होती हैं। यही नहीं किसी को भी अनेक ज्ञानों की उपलब्धि या लब्धि हो सकती है परन्तु वह एक समय में एक ज्ञान का उपयोग कर सकता है, जैसा कि कहा है- 'मतिज्ञानादिषु चतुर्षु पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपत' तत्त्वार्थ भाष्य अ० १ सूत्र ३१ अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनपर्यायज्ञान इन चार ज्ञानों का उपयोग एक साथ नहीं हो सकता। किसी को भी एक साथ एक से अधिक ज्ञान का उपयोग नहीं हो सकता । कारण कि ये सब ज्ञान, ज्ञान की पर्यायें हैं। और यह नियम है कि एक साथ एक से अधिक पर्यायों का उपयोग सम्भव नहीं है । इसीलिए कहा है कि पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं, सहवर्ती नहीं । अतः चारों ज्ञानों की उपलब्धि एक साथ हो सकती है परन्तु उनका उपयोग क्रमवर्ती होता है सहवर्ती नहीं में भी उसके किसी एक भेद का ही ज्ञान होगा दूसरे अर्थात् एक समय एक ही ज्ञान होगा और उस ज्ञान भेदों का नहीं जैसे अवाय मतिज्ञान का उपयोग होगा तो ईहा, धारणा आदि मतिज्ञान के भेदों का उपयोग नहीं होगा । अभिप्राय यह है कि जैनागमों में ज्ञान दर्शन आदि गुणों के एक साथ होने का निषेध नहीं किया गया है । निषेध किया गया है दो उपयोग एक साथ होने का । यहाँ तक कि वीतराग केवली के भी दोनों उपयोग युगपत् नहीं माने हैं जैसा कि कहा है - " सव्वस्स केवलिस्स वि युगपदी णत्थि उप- विशेषावश्यक भाष्य ३०६६ ओगो ।” यहाँ प्रसंगवशात् यह विचार करना अपेक्षित है कि श्वेताम्बर आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर एवं दिगम्बर आचार्य श्री वीरसेन आदि ने केवली के चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ www.jaine.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5