Book Title: Kevalgyan aur Kevaldarshan dono Upayog Yugpat nahi Hote Author(s): Kanhaiyalal Lodha Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 2
________________ 6 उपर्युक्त कथन से यह सिद्ध होता है कि दर्शनो- अर्थात् चूंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन का पयोग सभी इन्द्रियों, मन, वचन, काया, अवाय उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है, इससे जाना जाता और ईहा व श्र तज्ञान इनका उत्कृष्ट काल श्वासो- है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्रवृत्ति एक च्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम होता है और साथ नहीं होती। यदि केवलज्ञान और केवल-0 केवलज्ञानोपयोग व केवलदर्शनोपयोग का उत्कृष्ट दर्शन की एक साथ प्रवत्ति मानी जाती तो तदा काल एक श्वासोच्छवास से अधिक और दो श्वासो- वस्था केवली के केवलज्ञान और केवलदर्शन के च्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम होता है। अर्थात् उपयोग का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नहीं दो श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल के भीतर में होना चाहिए किन्तु कुछ कम पूर्व कोटि प्रमाण होना केवलज्ञान व केवलदर्शन का उपयोग बदल जाता चाहिए क्योंकि गर्भ से लेकर आठ वर्ष काल के बीत है । अतः जहाँ केवलज्ञान व केवलदर्शन के उपयोग जाने पर केवलज्ञान सूर्य की उत्पत्ति देखी जाती का काल अन्तर्मुहूर्त दिया है वहाँ यह अन्तर्मुहूर्त है। दो श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम ही सम- उपर्युक्त विवेचन में 'केवलज्ञान व केवलदर्शन झना चाहिए। यह काल सूक्ष्म सांपराय, क्रोध, के उपयोग का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है ।' मान, माया, लोभ क्षद्रभव ग्रहण काल से भी कम ये मूल वाक्य जिज्ञासा के रूप में कहे गये हैं । परंतुल है। यह सत्र के आगे के भाग से स्पष्ट है। इन्हीं जिज्ञासा का समाधान करते हए टीकाकार श्री गाथाओं की टीका के प्रसंग में आचार्य श्री वीरसेन वीरसेनाचार्य ने इन सत्र वाक्यों को न तो नकारा स्वामी ने उस समय विद्यमान अन्य प्रमाण केवल- है और न अप्रामाणिक या मिथ्या कहा है प्रत्युत ज्ञान व केवलदर्शन के युगपत् नहीं होने को पुष्ट इन्हें स्वीकृति प्रदान कर आगे भी पुष्ट किया है । करने वाले दिये हैं यथा (ग) असरीरा जीवणा उवज्जुत्ता दंसणे य णाणे य । केइं भणंति जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणोत्ति । सायारमगायारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ (१ सुत्तमवलंवमाणा तित्थयरासायणा भीरू ॥ (३४) ।। २-६-५६ धवला ७, पृष्ठ ६८. -कषायपाहुड पुस्तक । अर्थात् तीर्थंकर की आसादना से डरने वाले अशरीर अर्थात् कायरहित शुद्ध जीव प्रदेशों आचार्य 'जं समयं जाणत्ति नो तं समयं पासति जं से घनीभूत, दर्शन और ज्ञान में अनाकार और समयं पासति तं नो समयं जाणति' साकार रूप से उपयोग रखने वाले होते हैं, यह इस प्रकार के सूत्र का अवलंबन लेकर कहते हैं सिद्ध जीवों का लक्षण है। कि जिन भगवान् जिस समय जानते हैं उस समय इस गाथा से यह प्रमाणित होता है कि 'सिद्धों देखते नहीं हैं और जिस समय देखते हैं उस समय में भी ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग होते हैं। जानते नहीं हैं। यदि सिद्धों में ये दोनों उपयोग युगपत् होते तो -कषायपाहुड पुस्तक, पृष्ठ ३२० इनका उत्कृष्ट काल 'अनन्त काल' होना चाहिये था (ख) "केवलगाण केवलदसणाण मुक्कस्स उव- कारण कि सिद्ध जीव का काल अनन्त व शाश्वत जोग कालो अंतोमुहत्तमेत्तो त्ति भणिदो तेण णव्वदे ला अतामुहुत्तमत्ता त्ति भाणदा तण व्वद होता है। परन्तु कषाय पाहुड की जहा केवलणाण दंसणाणामुक्कमेण उत्तीण होदि त्ति।" केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग का ___ -कषायपाहुड पुस्तक, पृष्ठ ३१६ उत्कृष्ट काल दो श्वास से कम अर्थात् अन्तर्मुहूर्त ही ? O - २८८ १ ध्यान रहे कि मूल गाथा में तद्भवस्थ शब्द नहीं है । चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Old Jain Buitation International SoSrivate & Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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