Book Title: Kevalgyan aur Kevaldarshan dono Upayog Yugpat nahi Hote Author(s): Kanhaiyalal Lodha Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 5
________________ दोनों उपयोग युगपत् मानते हैं। यह कहाँ तक का ही उदय हो तो न तो ज्ञानदर्शन गुणों की लब्धि युक्तिसगत है। होगी और न उपयोग की ही / अतः छद्मस्थ के भो ____ इस सम्बन्ध में प्रथम तो मेरा यह निवेदन है में उपयोग दोनों कर्मों के आवरणों के क्षयोपशम से ही कि प्राचीनकाल में सभी जैन सम्प्रदायें केवली में होता है / यही तथ्य केवली पर भी घटित होता है। दोनों उपयोगों को युगपत् नहीं मानती थीं जैसा कि नती थीं जैसा कि अन्तर केवल इतना ही है कि दोनों कर्मों के क्षयोपकषाय-पाहुड में लिखा है-"केवलगाण केवलदंस शम से छद्मस्थ के ज्ञान-दर्शन गुण आंशिक रूप में मणाण मुक्कस्स उवजोगकालो जेण अंतोमहत्तमेत्तो प्रकट होते हैं और इन दोनों कर्मों के सम्पूर्ण क्षय से त्ति भणिदो तेण णव्वदे जहा केवलणाणदंसणाण केवली के ज्ञानदर्शन गुण (पूर्ण रूप) में प्रकट होते मुक्कमेण उत्तीण होदि त्ति / ' कषायपाहुड पु० 1 / / हैं। इस प्रकार केवली और छद्मस्थ के ज्ञान-दर्शन * पृ० 316, अर्थात् चूँकि केवलज्ञान और केवलदर्शन ___ गुणों में अंशों का ही अन्तर है / अतः जो भी युक्तियाँ Bh का उत्कृष्ट उपयोग काल अन्तर्मुहूर्त कहा है इससे / केवली के युगपत् उपयोग के समर्थन में दी 110) जाना जाता है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन की ___ जायेंगी ये सब युक्तियाँ छद्मस्थ पर भी लागू होंगी | ___ और छद्मस्थ के भी दोनों उपयोग युगपत् मानने प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती। कषायपाहुड के इस पडेंगे जो श्वेताम्बर-दिगम्बर आदि किसी भी जैन कथन से ज्ञात होता है कि उस समय केवली के सम्प्रदाय को कदापि मान्य नहीं है। अतः केवली के दोनों उपयोग युगपत् नहीं होने की मान्यता सभी दोनों उपयोग युगपत् मानने में विरोध आता है। / जैन सम्प्रदायों में प्रचलित थी। विशेषावश्यक इसी प्रकार छद्मस्थ जीव के दोनों उपयोग युगपत् 7) भाष्य की गाथा 3066 में इसे स्पष्ट स्वीकार किया न मानने के लिए जो भी युक्तियाँ दी जायेंगी वे || ही है। केवली पर भी लागू होंगी और केवली के दोनों ID केवली के दोनों उपयोग युगपत् होने के समर्थन उपयोग युगपत् नहीं होते हैं यह मानना ही पड़ेगा। में धवला टीका पुस्तक 1 व 13 तथा कषायपाहुड छद्मस्थ जीव के दोनों उपयोग युगपत् नहीं होते, यह 110 1 आदि ग्रन्थों में यह युक्ति दी गई है कि केवली सर्वमान्य सिद्धान्त है / अतः केवली के भी दोनों एक के दोनों आवरण कर्मों का क्षय युगपत् होने से दोनों उपयोग युगपत् नहीं होते यह स्वतः सिद्ध हो जाता 0 3 उपयोग भी युगपत् होते हैं और यही युक्ति आचार्य है। अतः अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकार से यह // श्री सिद्धसेन ने भी दी है। सिद्ध होता है कि केवली के युगपत् उपयोग नहीं होते हैं / सिद्धान्त भी इसका साक्षी है / मैं उपर्युक्त इस सम्बन्ध में यह बात विचारणीय है कि छद्मस्थ जीवों के भी दोनों कर्मों के आवरण का विषय पर अपने विचार ऊपर प्रस्तुत कर चुका हूँ क्षयोपशम सदैव रहता है जिससे ज्ञान और दर्शन फिर भी मेरा इस सम्बन्ध में किंचित् भी आग्रह नहीं गुणों की लब्धि प्रकट होती है और उस लब्धि में / है। आशा है कि विद्वत् जन तटस्थ बुद्धि से विचार कर अपना मन्तव्य प्रकट करेंगे। प्रवृत्ति से उपयोग होता है। यदि कर्मों के आवरणों का क्षयोपशम न हो अर्थात् केवल सर्वघातीस्पर्धकों श्री जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान साधना भवन, ए-8 महावीर उद्यान पथ, बजाज नगर, जयपुर (राज.) 302017 261 चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम HOO साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International Por private Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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